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प्रबुद्ध-साधक
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होगी । केशोको बिना कटाए जीवोका सद्भाव या तो ध्यान में विघ्न उत्पन्न करेगा अथवा उनके खुजाने आदिसे उनका घात होगा । उत्कृष्ट अहिसा, अपरिग्रह और स्वावलम्बी जीवनके रक्षणनिमित्त शरीरके प्रति निर्मम हो वे कम-से-कम दो माह और अधिक-से-अधिक चार माह के भीतर अपने केशोका अपने हाथोसे लोच करते है । आत्म-बलकी वृद्धि होनेके कारण वे साधु प्रसन्नतापूर्वक अपने केशोको घासके समान उखाड़ते है । इनका उद्देश्य शरीरको एक गाडीतुल्य समझ भोजनरूपी तेल देते हुए जीवनयात्रा करना रहता है। उनका यह दृढ विश्वास है कि शरीरका पोषण आत्माके सच्चे हितका कार्य नही करेगा । आत्माका शोषण करनेवाली क्रियाएँ शरीरकी अभिवृद्धिनिमित्त होगी । योगिराज कितनी पूज्यपाद मार्मिक बात कहते है -
“यज्जीवस्योपकाराय तद्देहस्यापकारकम् । यद्देहस्योपकाराय तज्जीवस्थापकारकम् ॥" - इष्टोपदेश १६ । अहिसात्मक दृष्टि और चर्या एव शरीरके प्रति निर्ममत्व होनेके कारण वे स्नान, दन्तधावन, वस्त्रधारणके प्रति विरक्त हो खडे होकर अपने हाथरूप पात्रोमे दिनमे एक बार गोचरीवृत्ति द्वारा शुद्ध और तपश्चर्या में वृद्धि करनेवाले भोजनको अल्पमात्रामे ग्रहण करते है । गाय जिस प्रकार घास डालनेवाले व्यक्तिके सौन्दर्य आदिपर तनिक भी दृष्टि न दे अपने आहारको लेती है, उसी प्रकार यह महान् साधक देवागनासमान सुन्दरियो आदिके द्वारा भी सादर आहार अर्पित करनेपर निर्मल मनोवृत्तिपूर्वक आहार ग्रहण करते है । दाताके शरीर-सौन्दर्य आदिसे उनकी आत्मा तनिक भी रागादि विकारपूर्ण नही होती। उनकी आहार चर्याको मधुकरी वृत्ति भी कहते है । जैसे - मधुकर - भूमर पुष्पोको पीड़ा दिए बिना आवश्यक रस-लाभ लेता है, उसी प्रकार ये सन्त-जन गृहस्थके यहा जैसा भी रूखा-सूखा भोजन बना हो और शुद्ध हो, उसे