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संयम विन घडिय म इक्क जाहु ६७ मजबूर हो जीवनकी ममताके कारण कभी-कभी वडे-बडे महात्माओकी सयमपूर्ण वृत्तिका स्मरण कराता है। किन्तु, इसमे यथार्थ सयमीकी निर्मलता और शान्तिका सद्भाव नहीं पाया जाता। भोगोकी नि सारता
और मेरा आत्मा ज्ञान तथा आनन्दका पुज है, उसे परावलम्बनकी आवश्यकता नहीं है, इस श्रद्धाकी प्रेरणासे प्रेरित हुआ सयम अपना विशेष स्थान रखता है । महर्षि कुन्दकुन्दका कथन है-"जिन तीर्थकरोका निर्वाण निश्चित है उन्हे भी विना सयमका आश्रय लिए मुक्ति नहीं मिल सकती।" इससे सयमका लोकोत्तरपना स्पष्ट विदित होता है। द्वादशाग रूप जिनेन्द्र भारतीमे आचाराग सूत्रका आद्य स्थान है, जिसमे सयमपर विशद प्रकाश डाला गया है। दर्शन अध्यात्म आदि सम्वन्धी वाडमयका पश्चात् प्रतिपादन किया गया है इससे जैनगासनमे सयमकी महत्ता सुविदित होती है । यह मनुष्य जीवनकी अनुपम विभूति है जिसे अन्य पर्यायोमे पूर्णरूपमें पाना सम्भव नही है। विषयवासनाएँ दुर्वल अन्त करणपर अपना प्रभाव जमा इद्रिय तथा मनको निरकुश करनेमे सर्वदा सावधान रहती है। इसलिए चतुर साधक भी मन एव इद्रियोको उत्पथमे प्रवृत्ति करनेसे वचानेका पूर्ण प्रयत्न किया करता है। एक पूजक कविवर धानतरायके शब्दोमे अपने आत्माको सम्बोधित करते हुए कहता है
"काय छहो प्रतिपाल, पंचेंद्रिय मन वश करो।
सजम रतन सम्हाल, विषय चोर बहु फिरत है।" अपभ्श भाषाके कवि रइधु संयमकी दुर्लभता और लोकोत्तरताको हृदयगम करते हुए मोही प्राणीको गिक्षा देते है
"संयम विन घडिय म इक्क जाहु" ।