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प्रबुद्ध-साधक
"जोलों देह तेरी का रोग सौं न घेरी
जोलौं जरा नाही नेरी जासो पराधीन परिहै ॥ जोलौं जम नामा बैरी देय न दमामा जोली
माने कान रामा बुद्धि जाय ना विगरिहै ॥ तोलौं मित्र मेरे निज कारज सम्हार ले रे
पौरुष थकेंगे फेर पाछे कहा करिहै ॥ आग के लागे जब झोपड़ी जरन लागी
कुवा के खुदाये तब कहा काज सरिहै ॥ २६ ॥ " - जैनशतक, भूधरदास
साधककी आत्मा जव गृहस्थ जीवनकी प्रवृत्ति द्वारा सयत वन जाती है तव आध्यात्मिक कविकी उपर्युक्त प्रवोधक वाणी उस मुमुक्षुको सयमके क्षेत्रमे लम्बा कदम वढानेको पुनः पुन प्रेरित करती है । यथार्थमे गृहस्थ जीवनका सयम और अहिंसादि धर्मोकी परिपालना आत्मीक दुर्वलताके कारण ही सद्गुरुओने बतायी है । समर्थ पुरुषको साधन मिलते ही साधनाके श्रेष्ठ पथमे प्रवृत्ति करते विलम्व नही लगता । तीर्थंकर' भगवान्के अन्त करणमे जब भी विषयोसे विरक्तिका भाव जागृत होता है, वे त्रिभुवनचमत्कारी वैभव विभूतिको अत्यन्त निर्मम हो दृढतापूर्वक छोड़ देते है ।
तत्त्वज्ञानीका आत्मा सपूर्ण परिग्रह आदिका त्याग कर श्रेष्ठ साधक वननेको सदा उत्कण्ठित रहता है, किन्तु वासनाएँ और दुर्बलताएँ उसे
१ भगवान ऋषभदेवके विषयमें स्वामी समन्तभद्रने लिखा है"विहाय यः सागर - वारि - वाससं वधूरिवेमां वसुधा-वधूं सतीम् । मुमुक्षुरिक्ष्वाकुकुलादिरात्मवान् प्रभुः प्रवव्राज सहिष्णुरच्युतः॥”
- स्वयम्भू स्तोत्र ३ ।