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________________ जैनगासन है। जू अगर पेटमे चली जाए तो जलोदर हो जाता है, मक्खीसे वमन, विच्छू से तालु रोग, मकडी भक्षणसे कुष्ट आदि रोग हो जाते है । अखबारी दुनियावालोको इस बातका परिचय है कि कभी-कभी भोजन पकाते समय छिपकली, सर्प आदि विषैले जन्तुओके भोजनमे गिर जाने के कारण उस जहरीले आहार-पानके सेवन करनेपर कुटुम्ब के कुटुम्ब मृत्युके मुखमे पहुँच गये है। ८८ जो इन्द्रियलोलुप है वे तो सोचा करते है कि भोजन कैसा भी करो दिलभर साफ रहना चाहिये। मालूम होता है ऐसे ही विचारोका प्रतिनिधित्व करते हुए एक गायर कहता है " जाहिद शराब पीने से काफिर बना में क्यों ? क्या डेढ़ चल्ल पानीमें ईमान बह गया ?" ऐसे विचारवाले गभीरतापूर्वक अगर सोच सके, तो उन्हें यह स्वीकार करना होगा कि सात्त्विक, राजस और तामस आहारके द्वारा उसी प्रकार - के भावोकी उत्पत्तिमे प्रेरणा प्राप्त होती है । आहारका हमारी मनस्थितिके साथ गहरा सम्बन्ध है । इसी बातको यह कहावत सूचित करती है - " जैसा खावे अन्न, तैसा होवे मन। जैसा पोवे पानी, तैसी होवे बानी ।।" इस सम्बन्धमे गांधीजीने अपनी आत्मकथामे लिखा है - " मनका शरीरके साथ निकट सम्बन्ध है । विकारयुक्त मन विकार पैदा करनेवाले भोजनकी ही खोजमे रहता है । विकृत मन नाना प्रकारके स्वादो और भोगोको ढूढता फिरता है, और फिर उस आहार और भोगोका प्रभाव मनके ऊपर पडता है। मेरे अनुभवने मुझे यही शिक्षा दी है कि जब मन सयमकी ओर झुकता है, तव भोजनकी मर्यादा और उपवास खूब सहायक होते है | इनकी सहायताके विना मनको निर्विकार वनाना असम्भव-सा ही मालूम होता है ।" ( पृ० ११२ - १३ ) अपने राजयोगमे स्वामी विवेकानन्द लिखते है- "हमे उसी आहारका प्रयोग करना चाहिए, जो हमे सबसे अधिक पवित्र मन दे ।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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