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संयम विन घडिय में इक्क जाहु
को अपनाया है। वैदिक साहित्यके अत्यन्त मान्य ग्रथ मनुस्मृतिमे मनु महाशय लिखते हैं
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"दृष्टिपूतं न्यसेत् पादं वस्त्रपूतं जलं पिवेत् ।” - अ० ६ ४६|
उपर्युक्त दोनो नियमो में अहिंसात्मक प्रवृत्तिके साथ निरोगताका भी तत्त्व निहित है । सन् १९४१ की जुलाईके " जैनगजट " मे पंजाबका एक सवाद छपा था कि- एक व्यक्तिके पेटमे अनछने पानीके साथ छोटा-सा मेढकका वच्चा घुस गया। कुछ समयके अनन्तर पेटमे भयकर पीडा होने लगी, तव ऑपरेशन किया गया और २५ तोले वजनका मेढक बाहर निकला । आज जो रोगोकी अमर्यादित वृद्धि हो रही है, उसका कारण यह है, कि लोगोने धर्मकी दृष्टिसे न सही तो स्वास्थ्य-रक्षणके लिए रात्रि भोजनका परित्याग, अनछना पानी न पीना, जिन वस्तुओमे त्रसजीव उत्पन्न हो गये हो या जो उनकी उत्पत्तिके लिये वीजभूत बन चुके है, ऐसे पदार्थोके भक्षणका त्याग पूर्णतया भुला दिया है। जीभकी लोलुपता और फैशनकी मोहकताके कारण इन वातोको भुला देनेमे ही अपना कल्याण समझा है। आजकलके वडे और प्रतिष्ठित माने जानेवाले और अहिंसा साधकोकी श्रेणीमें बैठनेवाले लक्ष्मीजी और आधुनिक आधिभौतिक ज्ञानके कृपापात्र पूर्वोक्त वातोको ढकोसला समझ यथेच्छ प्रवृत्ति करते हुए दिखाई पडते है । उन्हें यह स्मरण रखना चाहिये कि हमारी असत् प्रवृत्तियोका घडा भरनेपर प्रकृति अपना भयकर दण्ड - प्रहार किये विना न रहेगी और तव पञ्चात्ताप मात्र ही गरण होगा ।
प० श्रशाधरजीने सागार धर्मामृतमे आयुर्वेद शास्त्र तथा अनुभवके आधारपर लिखा है कि रात्रि भोजनमें आसक्ति और रागकी तीव्रता होती है तथा कभी-कभी अज्ञात अवस्थामे अनेक रोगोको उत्पन्न करनेवाले विपैले जीव भी पेटमे पहुँच विचित्र रोगोको उत्पन्न कर देते
१ अध्याय ४-२५ ।