________________
८६
जैनशासन
पद्धतिसे मक्षिकाओका विना विनाश किये जब मधु तैयार होता है, तब मवुत्यागको मूलगुणोमे क्यो परिगणित किया है यह सहज शका उत्पन्न होती है ? स्वय गाधीजी ऐसे मधुको अपना नित्यका आहार बनाये हुए थे। हमने १९३५ मे बापूसे मधु त्यागपर उनके वर्धा आश्रममे जव चर्चा की, तव उनने यही कहा था कि पहिले जीववध पूर्वक मधु बनता था, अब अहिंसात्मक उपायसे वह प्राप्त होता है, इसलिए मै उसको सेवन करता हूँ। इस विषयकी चर्चा जब हमने चारित्र चक्रवर्ती दिगम्बर जैन आचार्य श्री शान्तिसागर महाराजसे चलायी और प्रार्थना की, कि अहिसा महाव्रती आचार्य होने के नाते इस विषयमे प्रकाश प्रदान कीजिये तब आचार्य महाराजने कहा कि मक्खी विकलत्रय जीव है, वह पुष्प आदि का रस खाकर अपना पेट भरती है और जो वमन करती है उसे मधु कहते है। वमन खाना कभी भी जिनेन्द्रके मार्गमे योग्य नहीं माना गया। उसमें सूक्ष्म जीव राशि पायी जाती है।" आगा है मधुकी मधुरतामे जिन साधर्मी भाइयोका चित्त लगा हो, वे आचार्य परमेष्ठीके निर्णयानुसार अहिंसात्मक कहे जानेवाले मधुको वमन होनेके कारण, अनतजीव-पिण्डात्मक निश्चय कर सन्मार्गमे ही लगे रहेगे।
रात्रिभोजनका परित्याग और पानी छानकर पीना-यह दो प्रवृत्तिया जैनधर्मके आराधकके चिन्ह माने जाते है। एक बार सूर्यास्त होते समय मद्रासमे अपना सार्वजनिक भाषण बन्दकर रात्रि हो जानेके भयसे गाधीजी जब हिन्दूके सम्पादक श्रीकस्तूरी स्वामी आयगरके साथ जानेको उद्यत हुए, तब उनकी यह प्रवृत्ति देख बडे-बडे शिक्षितोके चित्तमे यह विचार उत्पन्न हुआ कि गाधीजी अवश्य जैनशासनके अनुयायी है। जैसे ईसाइयोका चिन्ह उनके ईश्वरीय दूत हजरत मसीहकी मौतका स्मारक क्रॉस पाया जाता है अथवा सिक्खोके केश, कृपाण, कडा आदि बाह्य चिन्ह है उसी प्रकार अहिंसापर प्रतिष्ठित जैनधर्मने करुणापूर्वक वृत्तिके प्रतीक और अवलम्वनरूप रात्रिभोजन त्याग और अनछने पानीके त्याग