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जनगासन
द्यूतके अवलम्वनसे यह प्राणी कितना पतित-चरित्र हो जाता है इसे सुभाषितकारने एक ढोगी साधुसे प्रश्नोत्तरके रूपमे इन शब्दोमे बताया है। पूछते है
"भिक्षो, मांसनिषेवन प्रकुरुषे? किं तेन मद्यं विना । मद्यं चापि तव प्रियम् ? प्रियमहो वारांगनाभिः सह ॥ वेश्या द्रव्यरुचिः कुतस्तव धनम् ? छूतेन चौर्येण वा।
चौयं द्यूतमपि प्रियमहो नष्टस्य कान्या गतिः॥" द्यूतके समान साधक चोरीकी आदत, वेश्या-सेवन, परस्त्री-गमन सदृश व्यसन नामधारी महा-पापोसे पूर्णतया आत्म-रक्षा करता है। साधकके स्मृतिपथमे ये व्यसन सदा शत्रुके रूपमे बने रहना चाहिए
जूवा, आमिष, मदिरा, दारी।
आखेटक, चोरी, परनारी ॥ ये ही सात व्यसन दुखदाई।
दुरित मूल दुरगतिके भाई ॥
-वनारसीदास, नाटक समयमार साध्यसाधक द्वार। वह साधक स्थूल झूठ नही वोलता और न अन्यको प्रेरणा करता है। स्वामी समन्तभद इस प्रकारके सत्य सम्भाषणको भी अपनी मूल-भूत अहिंसात्मक वृत्तिका सहार करनेके कारण असत्यका अग मानते है, जो अपनी आत्माके लिए विपत्तिका कारण हो अथवा अन्य को सकटोसे आक्रान्त करता हो। यहा सत्यकी प्रतिज्ञा लेनेवाले प्राथमिक साधकेके लिए इस प्रकारके वचनालाप तथा प्रवृत्तिकी प्रेरणा की है जो हितकारी हो तथा वास्तविक भी हो। वास्तविक होते हुए भी अप्रशस्त वचनको त्याज्य कहा है-यही सत्याणुव्रतका स्वरूप है।'
१ "स्थूलमलोकं न वदति न परान् वादयति सत्यमपि विपदे। ___ यत्तद्वदन्ति सन्तः स्थूलमृषावादवैरमणम् ॥" रत्न० श्रा० ५५।