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नवीन वेदों की उत्पत्ति।
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वर्ष हुए हैं, इस लिखने में क्या आश्चर्य है, जो किसी ने उलट पुलट के चवीन बनादिये हो, इन वेदों पर उहूट, सायण, रावणं, महीधर और शंकराचार्यादिकों ने भाष्य बनाये हैं, टीका, दीपिका रची हैं, अब उस प्राचीन भाष्य दीपिका को अयथार्थ जान के दयानन्द सरस्वती स्वामी भान मत के अनुसार नवीन भाष्य विक्रम १६३२ संवत् के पीछे बनाया है परन्तु सनातन नाम धराने वाले ब्राह्मण पंडित दयानन्दजी के भाग्य को प्रमाणिक नहीं मानते हैं, परन्तु अंग्रेजी पढे चारों वर्ण के लोक अगले वेद मत से तथा चारों संप्रदायों के मत से घृणा कर समाज की वृद्धि करते जाते हैं, और जैनधर्मी वो जब से प्राचीन वेद बिगाड़े गये उस दिन से ही कल्पित वेद को ईश्वरोक्त नहीं होने से छोड़ दिया है।
जब भगवान ऋषभदेवजी का निर्वाण कैलास पर्वत पर हुआ, तब सब देवतों के संग ६४ ही इंद्र, निर्वाण महिमा करने को आये, उन सब देवता में से अग्नि कुमार देवता ने भगवान की चिता में अग्नि लगाई, तब से ये श्रुति लोकों में प्रसिद्ध हुई, "अग्निमुखावैदेवा" अर्थात् अग्नि कुमार देवताओं में मुख्य है, और अन्य बुद्धियों ने तो यह श्रुति का अर्थ एसा बना लिया है, अग्नि जो है सो तेतीस क्रोड़ देवताओं का मुख है, यह प्रभु का निर्माण स्वरूप जंबुद्वीप प्रज्ञति सूत्र आवश्यक सूत्र से जान लेना।
जब देवताओं ने ऋषमदेवजी के दाद, दंत लिये, तर श्रावक ब्राह्मण देवताओं से याचना करते हुये, तब देवता इनों को याचक याचक कहने लगे, देवतों ने कहा तुम चिताग्नि लेजाओ, तब ब्राह्मण चिताग्नि अपने घर लेगये, उस को यत्न से वृद्धि करते रहे तब से ब्राह्मणों का नाम, "माहितामयः" पड़ा, यही आतसपरस्ती पारस देशमे प्रचलित रहनेके कारण पारसी जाति भी अग्नि को पूजते हैं और नित्य निज गृह में रखते हैं, परशुराम ने ७ वेर फिरफिर के निचत्रणी पृथ्वी करी उस समय भय । नोट.--(१) यह भाष्यका रावण नाम का ब्राह्मण था, वह लंकापति रावण 1 ने नहीं बनाया है।