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श्रीजैनदिग्विजय पताका (सत्यासत्यनिर्णय)। .
से क्षत्री लोक व्यापारी बन गये, वे किराड़ खत्री बजते हैं, तद पीछे सुभूस चक्रवर्ती राजपूत परशुराम को मार २१ बेर निवामणी पृथ्वी करी उस भय से जगत के बहुत ब्राह्मण सुनार आदि हो गये, ४ वर्ण का कृत्य करने लगे तथा लाखों पारस देश में जा पसे चे पारसी पजने लगे, अग्नि पूजना, जनेऊ छिपी हुई कमर में जब से ही रखते हैं ऐसा स्थान है। अस्थि चुगणे का व्यवहार देवतों की तरह लोक भी करने लगे, दूसरे दिन चिता शीतल होने से वाह्मण श्रावकों ने चिता की भस्मी थोड़ी २ सबों को दी, और अपने मस्तक पर त्रिपुंडाकार लगाई, तब से त्रिपुंड लगाना शुरू हुआ, संध्या करते ब्रामण भस्मी उस दिन से लगाते हैं । ऋषभदेवजी को पालपने में इक्षु खाने की इच्छा हुई और प्रथम वर्षापवासी का पारख भी इक्षुरस से ही हुआ, प्रभु को मिष्ट इष्ट होने से सारी प्रजा ने गुड़ को सर्व कार्य में मंगलीक माना, दीक्षा लेते इंद्र की प्रार्थना से शिखा के बाल नहीं लोचे, तब से ही आर्य लोक शिखा मस्तक पर रखना प्रारम्भ करा । - भरत चक्रवर्ति के सूर्ययश, महायश, अतिबल, महाबल, तेजवीर्य, कीर्तिवीर्य और दंडवीर्य एवं आठ पाट तक ३ खंड में राज्य करते रहे, दंडवीर्य सेव॒जय तीर्थ का भरत की तरह दूसरा उद्धार कराया, असंख्य पाटधारी हुये, सब कोई मुक्ति, कोई सर्वार्थ सिद्ध विमान में गये, इन असंख्य पाटों की व्यवस्था चितांतर गंडिका में लिखा है, तद पीछे जितशत्रु राजा हुये । इति संक्षेपतः ऋषभाधिकार संपूर्णम् ।
अथ अजितनाथ २ तीर्थकर का संक्षेप स्वरूप लिखते हैं, अयोध्या नगरी में जितशत्रु इक्ष्वाकु वंशी राजा राज्य करता है, जिसका मूल नाम विनीता है, यह अयोध्या पीछे चसी है, इस में राम लक्ष्मण का जन्म हुआ है, जितशत्रु राजा का छोटा भाई सुमित्र युवराज था, जितशत्रु की विजया देवी रापी थी, उन दोनों के १४ स्वम सूचित अजितनाथ नाम का पुत्र हुमा,
और सुमित्र की यशोमती राणी के भी १४ सम सूचित, सगर नाम का पुत्र हुआ, जब दोनों पुत्र योवनवंत हुए तब जितशत्रु राजा और सुमित्र