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श्रीजैनदिग्विजय पताका (सत्यासत्यनिर्णय)।
यतः सर्व पुरुषैववेदं यद्भूतंयविष्यति ।
ईशानोयंमृतत्वस्य यद नातिरोहति ॥१॥ __अर्थात् जो कुछ है सो सब ब्रह्म रूप ही है, जब एक ब्रह्म हुआ तो कौन किस को मारता है, इस वास्ते यथा राचि यज्ञों में पच आदि हवन कर उनों का मांस खाओ, इस में कुछ दोष नहीं, क्योंकि देवोद्देश्य करने से मांस पवित्र हो जाता है, ऐसे उपदेश देकर सगर राजा से अंतर्वेदी कुरुवेंत्रादि में पर्वत यज्ञ कराता हुआ, और जो जीवों को पर्वत यज्ञों में मरवाता उनों को वह महाकाल असुर देव माया से विमानों में बैठाया हुआ स्वर्ग को जाते दिखाता, जब लोकों को प्रतीति आगई, तब निःशंक होकर जीव अधरूप यज्ञ करने लगे, राजसूयादिक यज्ञ में घोड़े को उसके संग अनेक जीवों का वध होने लगा, ऐसे अघोर पापों से सगर और सुलसाभर नर्क को प्राप्त हुए, तब महाकाल असुर ने मारण, ताडन, छेदन भेदनादिक से अपणा वैर लिया, हे राजा रावण, पर्वत पापी से यह जीव हिंसा यज्ञ के वाहने विशेषतया प्रवर्तन हुओ, जिसको आपने इस अवसर पर बंध करा, तब रावण नारद को प्रणाम कर विदा करा, इस तरह जैनशास्त्रों में वेद की उत्पत्ति लिखी है, सो आवश्यक सूत्र आचार दिनकर तेसठ शाला का पुरुष चरित्रादि से इहां लिखा है।
. .. नवीन वेदों की उत्पत्ति।
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इस वर्तमान काल में जो चारों वेद है, इनों की उत्पत्ति डावर ' मोचमूलर साहब, पश्चिमी विद्वान् अपणे बनाये संस्कृत साहित्य ग्रंथ में ऐसा लिखते हैं कि वेदों में दो भाग हैं, एक तो छंदो भाग, दूसरा मंत्र भाग, तिन में से छंद भाग में ऐसा कथन है जैसे अज्ञानी' के मुख से अकस्मात् बचन-निकला हो, .इस..भाग की उत्पत्ति इकतीस से वर्षों से हुई है, और मंत्र भाग को बने गुनतीस सौ.