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प्राचीन वेद के विगड़ने का इतिहास ।
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'प्राणि बध से ही जीवों को स्वर्ग मिलता होय तो थोड़े ही दिनों में यह
जीव लोक खाली हो जावेगा, और केवल स्वर्ग ही रह जायगा, यह मेरा 'बचन सुनते ही अग्नि की तरह धमधमायमान ब्राह्मण मेरे को पीटनेलगे, , तब में अपना प्राण ले भागता हुआ तेरे पास पहुंचा हूं, हे रावण, विचारे निरापराधी पशु मारे जाते हैं उनोंकी रक्षा करणे में तूं तत्पर हो तब रावण मरुत राजा के पास गया, मस्त ने रावण की बहुत भक्ति पूजा करी, तव रावण बहुत कोप में आकर मरुत राजा को कहने लगा, अरे नरक का देनेवाला यह हिंसामई चंडाल कर्म यज्ञ क्यों कर रहा है, क्योंकि धर्म तो अहिंसा में है, ऐसा अनंत तीर्थकरों की आज्ञा है, वही जगत् का हित करणे वाला है, अगर नहीं मानेगा तो इस यज्ञ का फल इस भव में तो मैं देदूंगा, और परलोक में नर्क में फल मिलेगा, ऐसा सुनते ही मरुत ने यज्ञ छोड़ दिया, क्योंकि उस समय रावण की ऐसी भयंकर आज्ञा थी, इस कथन से यह भी मालूम होता है कि जो ब्राह्मण लोक कहा करते हैं,
आगे राक्षस यज्ञ विध्वंस कर देते थे, जैन धर्मी रावणादि राजा ने पशु बघ रूप यज्ञ बंध स्थान २ पर करा होगा, तब से ही ब्राह्मणों ने अपने बनाये पुराणों में चलवंत जैनधर्मी राजाओं को राक्षस करकेलिखाहै, कोण जाये इस रावण के कथानक का यही तात्पर्य ब्राह्मणों में लिख लिया होगा। ,
तद पीछे रावण ने नारद को पूछा, ऐसा पापकारी पशु बधात्मक यह यज्ञ कहां से चला, तब नारद कहता है, शुक्तिमती नदी के किनारे ऊपर एक शुक्तिमती नगरी है, उसमें श्री मुनि सुव्रत स्वामी, हरिवंशी तीर्थकर की संतानों में जब कितनेक राजा होगये, तत्पश्चात् अभिचन्द्र नाम का राजा हुआ, उस अभिचंद्र का पुत्र वसु नाम का है, वो महाबुद्धिमान् सत्यवादी , लोकों में विख्यात हुआ, 'उस नगरी में उपाध्याय, खीरकदंब मामण गुणसंपन वसता है, उसका पुत्र पर्वत है, उस उपाध्याय पास मैं, पर्वत, वसु तीनों वेदवेदांग पढ़ते थे, एक दिन हम तीनों पाठ करने के श्रम से थके हुए रात्रि को सो गये थे, उपाध्याय जागते थे, उस समय