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श्रीजैन दिग्विजय पताका (सत्यासत्यनिर्णय ) |
चारण, श्रमण दो साधु श्राकाश मार्ग उड़ते परस्पर वार्ता करते बोले, खीरकंदंब के ३ विद्यार्थियों में से दो नरक जायेंगे, एक स्वर्गगामी है। यह सुनि बचन सुन के उपाध्याय चिन्ता करने लगा, मेरे पढ़ाये नरक में जायंगे ये मुझे बड़ा दुःख है, परंतु इंनों में से दो नर्क कौन २ जायेंगे, इनों की परीक्षा करनी, प्रभात समय गुरु ने तीन पिष्टमय, कुर्कट क्या हम तीनों को देकर कहा, यत्र कोई भी नहीं देखता होय उस जगह इन को मारना है, तद पीछे वसुराज पुत्र (१) और पर्वत (२) निर्जन बन में जाकर मारलाये। मैं (नारद) नगर से बहुत दूर गया, जहां कोई भी मनुष्य नहीं था, तब मेरे मन में यह तर्क उत्पन्न भई, गुरु महाराज दयाधर्मी है, नहीं मारना ही कहा है, क्योंकि ये कुर्कट मुझे देखता है, और मैं इस को देखता हूं, खेचर लोकपाल, ज्ञानी, इत्यादि सर्व देखते हैं। ऐसा जगत् में कोई भी स्थान नहीं जहां कोई भी न देखता हो । गुरु पूज्य, हिंसा से पराङ्मुख है, निकेवल परीक्षा लेने यह प्रपंच रचा है, तब ऐसा ही गुरु पास चला गया। सर्व बुसान्त गुरु को कह सुनाया, गुरु ने मन में निश्चय कर लिया, ऐसा विवेकी नारद ही स्वर्ग जायगा | गुरु ने मुझे छाती से लगाया, धन्यवाद दिया । गुरु ने पर्वत और वसु का तिरस्कार करा और कहा तुमने कैसे झुर्कट को मारा, नारदोक्त बात कही, हे पापिष्ठो, तुम ने मेरा हाथ ही लजाया, क्या करूं, पानी जैसे रंग के पात्र में गिरता है तद्वत् वर्ण देता है, यही स्वभाव, विद्या का है, प्राणों से भी प्यारे पर्वत और वसु, नरक में जायंगे, अन मैं संसार में नहीं रहता, न कुपात्रों को पढ़ाता, खीरकदंब ने दीक्षा लेली, पिता की जगह पर्वत स्थापन हुआ, व्याख्या करने में पर्वत बड़ा प्रबीण - था, मैं भी गुरु की कृपा से सर्व शास्त्रों का विशारद होकर अन्य स्थान में चला गया, अभिचन्द्र राजा ने दीक्षा ली, वसु राजा सिंहासन ऊपर बैठा, वसु राजा को एक सिंहासन ऐसा मिला, जब सूर्य का प्रकाश होता तब स्फटिक के सिंहासन पर बैठा हुआ राजा वसु अधर दीखता । सिंहासन लोकों को नहीं दीख पड़ता था, तब लोकों में ऐसी प्रसिद्धि हो गई, राजा बसु बड़ा सत्यवादी है, सत्य के प्रभाव से देवता इसके सिंहासन को अधर रखते है, राजा भी इस कीर्ति को सत्य रखने, सत्य का ही वर्ताव करने,
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