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________________ श्री जैनदिविजय पताका (सत्या प्रत्यनिर्णय ) । ने बनाये हैं सो सत्य है क्योंकि कितनीक उपनिपदों में पिप्पलाद का भी नाम हैं और और ऋषियों का भी नाम है, जमदग्नि, कश्यग- तो वेदों में खुद नाम से लिखा है तो फिर वेदों के नवीन बनने में शंका ही क्या है ?.. ४० अब तत्पश्चात् इन वेदों की हिंसा का प्रचारक पर्वत नाम का ब्राह्मण हुआ उसका भी कुछ संक्षेप से चरित्र लिखते हैं । लंका का राजा रावण जन दिग्विजय करने चतुरंगणी सेना युक्त सब देशों के राजाओं को आज्ञा मनाने निकला उस अवसर में नारद मुनि लाठी, सोटे, लात और घूंसों का मारा हुआ पुकारता रावण के पास आया रावण ने नारद को पूछा, तुम को किसने पीटा है, तब नारद कहने लगा हे राजाधिराज, राजपुर नगर में मरुत नाम राजा है, वह मिथ्या दृष्टि है, बो ब्राह्मणाभासों के उपदेश से हिंसक यज्ञ करने लगा है, होम के वास्ते, सोनिकों की तरह वे ब्राह्मणामास अर्राट शब्द करते विचारे निरापराधी पशुओं को मारते मैंने देखा तब मैं आकाश से उतर के जहां मरुत राजा ब्राह्मणों के मध्य बैठा है, उसके समीप जाके मैं कहने लगा, हे राजा यह तुम क्या करते हो, तब राजा मरुत बोला, ब्राह्मणों के उपदेशानुसार देवताओं की तृप्ति वास्ते और स्वर्ग वास्ते यह यज्ञ में पशुओं का बलिदान करता हूँ, यह महाधर्म है, तब नारद ने कहा, यतः "यूयंच्छित्वा पशुन् हत्वा कृत्वारुधिरकर्द्दमं यद्येवंगमनंस्वर्गे नरके केन गम्यते " हे राजा, चार्य वेदों में ईश्वरोक्त यज्ञ क्रिया इस तरह से लिखी है, सो तुम को सुनाता हूं, सो सुनो, आत्मा तो यज्ञ का यष्टा ( करनेवाला) तप रूप अग्नि, ज्ञान रूप घृत, कर्म रूप ईधन, क्रोध, मान, माया, लोभादि पशु सत्य बचन रूप ग्रुप (यज्ञस्तंभ ) सर्व जीवों की रक्षा करनी, ये दक्षणा; ज्ञान दर्शन चारित्र रूप त्रिवेदी ऐसा यज्ञ जो योगाभ्यास ( मन, बचन, कायावश ) युक्त जो करे वह मुक्त रूप हो जाता है और जो राक्षस बन के अश्व, छागादि, मारके यज्ञ करता है वह करने और कराने वाला दोनों घोर नर्क के चिरकालीन दुःख भोगेंगे, हे राजा तूं सुकुलोत्पन्न बुद्धिमान् धनवान होकर यह अधमाधम व्याथोचित पाप से निवर्त्तन होजा, जो 1
SR No.010046
Book TitleJain Digvijay Pataka
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages89
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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