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श्रीजैन दिग्विजय पताका (सत्यासत्यनिर्णय ) |
समझा ने भेजी, वे दोनों के “बीरा म्हारा गज थकी उतरो, गज चढ्या केवल न होई रे" ऐसा गायन करने लगी, बाहुबल गायन सुख तत्वार्थ विचारता, पांव उठाया, तत्काल केवल ज्ञान उत्पन्न केवली पर्षदा में समवसरण में प्राप्त हुये ।
वेद और ब्राह्मणों की उत्पत्ति |
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अत्र चक्रवर्त्ति भरत साम्राद ६६ भतीजों को अपने चरणों में लगाय निज २ राज्य को भेज दिया, चंद्रयश, तक्षशिला गया, इस के हजारों पुत्रों से चन्द्र वंश चला, अत्र भरत अपने भाइयों को मनाने निजापकीर्त्ति मिटाने पांच सौ गाडे पक्वान्न के लेकर समवसरण में आया और कहने लगा, मैं अपभ्राताओं को भोजन करा, मेरा अपराध क्षमा कराऊंगा । तब भगवान ने कहा, निमित्त करा हुआ सन्मुख लाया हुआ एवं ४२ दोष युक्त आहार लेखा मुनियों के योग्य नहीं, तब भरत बड़ा ही उदास हुआ और कहने लगा उत्तम पात्रों का आहार कल्पित, मैं किस को दूं, तब शक्रेन्द्र ने कहा, हे चक्री, जो तेरे से गुणों में अधिक होय उनों को यह भोजन दो, तत्र भरत ने विचार करा, मैं तो अबूत सम्यक् दृष्टिवंत हूं, मेरे से गुणों में अधिक अणुव्रतधर सम्यक्ती श्रावक है, तब भरत बहुत गुणवान श्रावकों को वह भोजन कराया और कहा तुम सब प्रतिदिन मेरे यहां ही भोजन करा करो, खेती, वाणिज्यादि कुछ भी मत करा करो, निःकेवल स्वाध्याय करणे में तत्पर रहा करो, और मेरे यहां भोजन कर महलों के द्वार निकटवर्ती रहके ऐसा दम २ में उच्चारण कियाकरो “जितो भवान्वर्धतेभयं तस्मान्मान माहनेति " तब वे श्रावक ऐसा ही करते हुये, भरतचक्री भोगं विलास में मन त्रिलक्ष्य बाजित्र वाजते, जब उनों का शब्द सुगता था,
नोट --- ( १ ) इस समय इस वाक्य की नकल श्रीमाली विप्र भोजन समय अन्योक्ति से करते है ।
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