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जैनधर्म की प्राचीनता का इतिहास ।
मूल मरीचि हुआ, सांख्य मत का तत्व भगवद्गीता, भागवतादि सांख्य ग्रंथों में प्रचलित है, जैन धर्म बिना सर्व मतों की जड़ इस सांख्य मत से समझनी चाहिये, इस वास्ते ही कपिलदेव को सर्व मगवें कपड़े वाले स्वामी सन्यासी मानते हैं ।
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राजा भरत ने चक्ररत्न का ८ दिन उच्छव करा, तब वह चक्र रत्न सह यचाविष्टत गगन मार्ग से चला, उसके पीछे सर्व सैन्या से राजा भरत चला, वैताढ्य की दक्षिण श्रेणि तथा उत्तर श्रेणि के ६६ कम ३२ हजार देश -६ खंड को साथ के राजा भरत चक्री अयोध्या विनीता पीछा आया, अपणे लघु भाइयों को आज्ञा मनाने दूतों के हाथ लेख भेजा, तब लघु भाइयों ने आपस में सम्मति की, राज्य तो अपणे सर्वो को अपणा पिता दे गया है तो फिर हम भरत की आज्ञा कैसे माने, चलो पिता से कहें यदि पिता कह देवेंगे के तुम भरत की आज्ञा मानों तो मानेंगे, यदि युद्ध करणा कहेंगे तो युद्ध करेंगे, ऐसा विचार कर ६८ भाई मिल ऋषभदेबजी के पास कैलास पर्वत ऊपर गये, भगवान उनों का मनोगत अभिप्राय सर्व ज्ञान के उनों को राज्य लक्ष्मी, गजकर्णवत् चंचल इस राज्य मोहोत्पन्न अकृत्यों से दुर्गति होती है, ऐसा बैताली अध्ययन सुनाया, जो सुयगडांग सूत्र में है, तब ६८ पुत्र वैराग्य पाय दीक्षा ली, सर्व कलह छोड दिया, तदनंतर भरत चक्रवर्ति बाहुबलि से १२ वर्ष युद्ध करा उस में मुष्टि युद्ध मैं बाहुबाले ने विचार करा, धिक् राज्य को, मेरी मुष्टि का प्रहार से भरत का चूर्ण २ हो जायगा, अपकीर्ति होगी, तुच्छ जीवतव्य राज्यार्थ वृद्ध भ्राता को मार डालना उचित नहीं परंतु मेरी मुष्टि रिक्त भी नहीं जाती, ऐसा विचार पंच मुष्टि लोच करा, मन में गर्व आया, मेरे छोटे भाईयों ने मुझ से प्रथम दीक्षा ली, पुनः केवली भी होगये, इस वास्ते मेरे से वे दीक्षा वृद्ध हैं, नमन वंदन करणा होगा, मैं बड़ा भाई उनों को कैसे प्रथम वंदन करूं, जब मुझे केवल ज्ञान होगा तब ही समवसरण में जाऊंगा, ऐसा विचार बन में खड्डासन कायोत्सर्ग में खड़ा रहा, शीत, उष्ण, भूख, प्यास से १ बर्ष आतापना करी, भगवान् केवल ज्ञान समीप जाण ब्राह्मी, सुंदरी साध्वी को
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