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वंद और ब्राह्मणों की उत्पत्ति ।
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तब विचारता था, किसने मुझ को जीता है, विचारता है क्रोध (१) मान (२) माया ( ३) लोम ( ४ ) इन चार कपायों ने मुझे जीता है, उनों से ही मय की वृद्धि हो रही है. इस वास्ते किसी भी जीव को नहीं हनना, इस वास्य से भरत को बड़ा वैराग्य होता था, तब इन श्रावकों की भक्ति, तन, मन, धन से चक्रवर्ति बहुत ही करने लगा, यह भक्ति देख शहर के सामान्य लोक कम कोश भी उन माहनों में आय मिले। तक रसोइया भरत महाराज से बीनती करी, मैं नहीं जान सकता इनों में कौन तो भावक है और कौन नहीं, तंब प्राज्ञा दी, तुम इन की परीक्षा करो, तव अपकार पूछता है, तुम कोण हो, उनोंने कहा हम पाचक हैं, तव. फेर पूछा भावक के व्रत कितने, जिनों ने कह दिया, हमारे ५ अनुबत, ३ गुणवत, ४ शिवानत है, एकेक व्रत के अतिचार सब श्रावक के. १२४ होते हैं, .२१ गुण श्रावक के बतलादिये,उनों को भरत के पास लाया, भरत ने उनमें के गले में कांगणी रत्न से वीन. २ रेखा. करदी, वह रत्ल की तरह दमकने लगी, जैसे दियासलाई जल में भिगा रात को अंग पर घसने से चमकती है, चमड़ी को इजा नहीं होती तैसे जो नहीं बता सके उनों को सूपकार ने कहा तुम पाठशाला में पढ़ के साधुओं के पास १२ व्रतादि धारण करो, भरत के हुक्म से छट्टे महीने अनुयोग परीक्षा उनों की करते रहे, वे श्रावक माहन जगत् में ब्राह्मण नाम से प्रसिद्ध हुये, वे माहन २ शब्द घेर २ उच्चारण करने से लोक उनों को माहन माहन कहने लग गये, जैन धर्म के शास्त्रों में प्राकृत भाषा में उनों को माहन ही लिखा है और संस्कृत में ब्राह्मण बनता है, वह प्राकृत व्याकरण में घमण और माहन् शब्द के रूपका वणता है, अनुयोग द्वार सूत्र में घुड्ढसावया महामाहना, याने बड़े श्रावक, माहमाहन, ऐसा लिखा है, इस तरह ब्राह्मणों की उत्पत्ति हुई, जो माहन दीक्षा ली यह तो साधु होते रहे, अवशेष व्रतधारी श्रावक माहन कहलाये ।
भरत ने ब्राह्मणों का सत्कार बढ़ाया, तब दूसरे लोक भी बहुत तरह का दान सन्मान करने लगे, भरत चक्रवर्ति ने श्री ऋषभदेवजी के उपदेशानुसार उन ब्राह्मणों के स्वाध्याय के अर्थ श्री आदीश्वर ऋपमदेव की