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जैनधर्म की प्राचीनता का इतिहास ।
बदि एकादशी के दिन, तीन दिन के उपवासी थे, तहां पहले प्रहर में केवल ज्ञान भूत भविष्यत् वर्तमान में सर्व पदार्थों के जानने देखने वाला
आत्मस्वरूप रूप प्रगट हुआ, तब चौसठ इंद्र आये, देवताओं ने समयसरण की रचना करी, प्रथम रजतगढ़, सोने के कांगरे, द्वितीय स्वर्णगढ़ रत्न के कांगरे, तीसरा रस का गढ़, माणि रत के कांगरे, मध्य में मणिरता की पीठिका, उस पर फटिक रत्न के ४ सिंहासन, भगवान के शरीर से १२ गुण ऊंचा अशोक वृक्ष की छांह. एकेक गढ़ के चारों दिशा में चार २ द्वार बढ़े दरवज्जे के आस पास दो छोटे दरवाजे, बीस हजार पैड़ी एकेक दिशि में। अब ऋषभदेव के सदृश तीन सिंहासन पर तीन विंव देवताओं ने स्थापन करा, जब जिस दरवाजे से कोई आता है उस तरफ ही श्रीऋषभदेव दीखते थे, इस वास्ते जगत में चार मुखयाला श्री भगवान ऋषभदेव ब्रह्मा के नाम से प्रसिद्ध हुआ, विश्व की पालना करने से लोकों में विष्णु नाम से ऋषभेदव प्रसिद्ध हुआ, जगत को सुख प्राप्त करने से शंकर नाम से ऋषभदेव प्रसिद्ध हुआ, देवतों से अर्चित होने से बुद्ध कहलाये, अथवा बिना गुरु ही ज्ञानवान् सर्व तत्व के वेत्ता होने से बुद्ध नाम से प्रसिद्ध हुआ । - जब ऋषभदेवजी के केवल ज्ञान की बर्दापनिका राजा भरत को प्राप्त. हुई तब ही आयुधशाला में चक्र रत्न उत्पन्न हुआ उसकी भी वर्दापनिका उसी समय आई, ऋषभदेवजी वनोवास पधारे, तब से माता मरुदेवा भरत को उपालंभ देती थी रेभरत ! तुम सब भाइयों ने मिलके मेरे पुत्र का राज्य छीन के निकाल दिया, मेरा पुत्र भूख, प्यास, शीत, उष्ण, डांस, मच्छरादि अनेक दुःख से दुःखी होगा, तुम कभी मेरे पुत्र की सार संभाल लेते नहीं,ऐसा दुःख कर रो रो के आंखों से अंधी होगई, उस समय भरत राजा ने मरुदेवा से चीनती करी हे मात तूं निरन्तर मुझे ओलंभा देती है,चल देख तेरा पुत्र कैसा सुखी है सो तुझे दिखलाऊं, हस्ती पर प्रारूढ कर आप महावत बन समवसरण को आने लगा, देवतों के गमनागमन का कोलाहल सुन मरुदेवा पूछती है ये अव्यक्त ध्वनि कहां हो रही है, तव भरत ने स्वरूप कहा, मरुदेवा नहीं मानती है, आगे देव दुंदुभि का शब्द आकाश में बजता सुण मरुदेवा