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श्रीजैनदिग्विजय पताका (सत्यासत्यनिर्णय ) ।
शिला नगरी में गये, बाहिर बन में कायोत्सर्ग में सांझ समय आकर समबसरे जब बाहुबलि को खबर मिली तब बाहुबलि ने मनमें विचार करा कि फल बड़े श्राडम्बर से पिता को बंदन करने जाऊंगा, प्रभात, समय सेन्यादि समते देरी हो गई, भगवान् प्रतिबद्ध बिहारी सूर्योदय होते ही बिहार कर गये, बाहुबलि आया, भगवान् को जब नहीं देखा तब उदास होकर कानों में अंगुली डाल के बड़े ऊंचे स्वर से पुकारा, बाबा आदिम, बाबा श्रादिम, कौन जाने इस ही विधि को यवन लोक काम में लेने लगे, तदनन्तरे बाहुबल ने भगवान् के चरणों पर धर्मचक्रतीर्थ की स्थापना करी, ये चरण अभी सिंहलद्वीपांतर्गत सीलोन में विद्यमान हैं, जहां के लोक कहते हैं, श्रादिम बुद्ध, आस्मान से पहले इहां उतरा था, उसके चरण हैं, एक आधुनिक जैन साधु ने आये रचित भाषा ग्रंथ में लिखा है वह धर्मचक्रतीर्थ, विक्रम राजा के बख्त तक तो विद्यमान था पीछे जब पश्चिम देश में मत मतांतर, उत्पन्न हो गये तब से वह तीर्थ अस्त हो गया । तदपीछे श्री ऋषभ देवजी बाल्हीक, जोनक, अडंब, (अरब) मक्के में भी चरण हैं, इल्लाक, सुवर्ण भूमि, पल्लवकादि देशों में विचरने लगे, जिन २ देशवालों ने ऋषभदेवजी का दर्शन करलिया, वह सबभद्रक स्वभाव वाले होगये, शेष जो रहे वे सब म्लेच्छ, निर्दयी, अनार्य होगये, अनेक कल्पनाके मत मानने लगे, उनों का आचार, विचार विलक्षण ही बनगया, उससमय समुद्र खाड़ी अब है उन स्थलों में नहींथा, जगती के बाहिर था, ऋषभदेव के पीछे पचास लाख कोड सागरोपम वर्ष व्यतीत होने पर सगर चक्रवर्त्ति के पुत्र जन्हु इस समुद्र का प्रवाह कैलास पर्वत पर भरत चक्री का कराया जिन मंदिर के रक्षार्थ लाया ऐसा शत्रुंजय महात्म्य ग्रंथ में लिखा है, उस जल से बहुत देश नष्ट हो गये, ऊंचेस्थलों में भाग २ कर मनुष्य बस गये, वह जर्मनी, फांसादि देश है | पीछे जन्हु के पुत्र भगीरथ को भेज सगर चक्री पीछा प्रवाहदक्षिण समुद्र में मिलाया, गंगा को फांट कर पूर्व समुद्र में मिलाई तब से गंगा का नाम जान्हवी, भागीरथी कहलाया, इस तरह छद्मस्थपणे विचरते. ऋषभदेव को एक हजार वर्ष व्यतीत हो गया, तब विहार करते विनीता नगरी के पुरीमताल नामा बाग में आये तब बड़ वृक्ष के नीचे फागुण
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