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श्रीजैनदिग्विजय पताका (सत्यासत्यनिर्णय)।
भरत से पूछती है, ये वाजिब कहां बज रहे हैं, भरत ने कहा हे माता, तेरे पुत्र के सामने देवता बजा रहे हैं तो भी मरुदेवा नहीं मानती है, तब भरत बोला हे माता, देख तेरे पुत्र का रजत स्वर्ण रत्न मई गृह जिस के आगे हजार योजन का इंद्र ध्वज लहक रहा है, कोटान कोटि देव इंद ६४ इंद्र जिस के चरणों में लुटते जय २ ध्वनि कर रहे हैं, कोटि सूर्य के सेज से देदीप्यमान तेरे पुत्र के पिछाड़ी भामंडल सोभता है, इंद्र चमर , दुला रहे हैं, इस समवसरण की महिमा मैं मुख से वर्णन नहीं कर सकता तू देखेगी तब ही सत्य मानेगी, ऐसा सुण सत्य मान के आंखें मसलने लगी, आंख निष्पटल हो गई, सब स्वरूप देख मरुदेवा विचारती है, धिक् २ पापकारी मोह को, मैं जाणती थी मेरा पुत्र दुःखी होगा, ये इतना सुखी है, मुझे कभी पत्र भी नहीं दिया कि हे माता तूं फिकर नहीं करणा मैं अतीव सुखी हूं, मेसरागणी, ये वीतराग इस मुजब भावना भाते, क्षपक श्रेणी चढ केवल ज्ञान पायकर हस्ति पर ही मुक्ति को प्राप्त हो गई।
तव शोकातुर भरत को इंद्रादिक देवता समझा के भगवान के पास लाये, भगवान ने संसार की अनित्यता बता कर शोक दूर करा, तब से उठावणे की रीति चली, उस समय समवसरण में भरत के पांचसो पुत्र, सातसे पोते, दीचा ली, वामी ने तथा और भी बहुतसी स्त्रियों ने दीक्षा ली, भरत के बड़े पुत्र का नाम ऋषभसेन पुंडरीक था, वह सोरठ देश में शत्रुअय तीर्थ ऊपर मोच गया, इस वास्ते शर्बुजय तीर्थ का नाम पुंडरीकगिरि प्रसिद्ध हुआ ।
भरत के पांचसो पुत्रों ने जो दीक्षा ली थी उस में एक का नाम मरीचि -था, वो मरीचि ने जैन दीक्षा का पालना कठिन जान अपनी आजीविका
चलाने वास्ते नवीन मनः कम्पित उपाय खड़ा किया, गृहवास करने में हीनता समझी, तब एक कुलिंग बनाया, साधु तो मन दंड, वचन दंड, काया दंड, से रहित है और मैं इन तीनों से दंडा हुआ हूं, इस वास्ते मुझे त्रिदण्ड रखना चाहिये, साधु तो द्रव्य भाव कर के मुंडित है सो लोच करते हैं और मैं द्रव्य मुंडित हूं इस वास्ते मुझे उस्तरे से शिर मुंडवाना,