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श्रीजैनदिग्विजय पताका (सत्यासत्य निर्णय ) ।
१२, मेघवृष्टि १३, फलाकृष्टि १४, आराम रोपण १५, श्राकारगोपन १६, धर्म विचार१७, शकुन विचार १८, क्रिया कल्पन १६, संस्कृत जल्पन २०, प्रासाद नीति २१, धर्म नीति २२, वर्णिका वृद्धि २३, स्वर्ण सिद्धि २४, तैल सुरभी करण २५, लीला संचरण २६, गज तुरंग परीक्षा २७, स्त्री पुरुष के लक्षण २८, काम क्रिया२६, अटादश लिपि परिच्छेद ३०, तत्काल बुद्धि ३१, वस्तु शुद्वि ३२, वैद्यक क्रिया३३, सुवर्ण रत्न भेद ३४, घट भ्रम ३५, सार परिश्रम ३६, अंजन योग ३७, चूर्ण योग ३८, हस्त लाघव ३६, वचन पाटव ४०, भोज्य विधि ४१, वाणिज्य विधि ४२, काव्य शक्ति ४३, व्याकरण ४४, शालि खंडन ४५, मुख मंडन ४६, कथा कथन ४७, कुसुम गूंथन ४८, चरवेष ४६, सकलभाषा विशेष ५०, श्रभिधानपरिज्ञान ५१, आभरण पहनना ५२, भृत्योपचार ५३, गृह्याचार ५४, शाठ्यकरण ५५, पर निराकरण ५६, धान्य रंधन ५७, केश बंधन ५८, बीणादि नाद ५६, वितंडावाद ६०, अंक विचार६१, लोक व्यवहार६२, अंत्याक्षरिका ६३, प्रश्न प्रहेलिका ६४, एवं स्त्रियों को ६४ कला सिखलाई ।
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इस काल में जो जो कलायें चल रही हैं वह सर्व पूर्वोक्त कलाओं के अंतर्गत ही हैं, जैसे प्रथम लिपि कला के १८ भेद ब्राह्मी निज पुत्री को दक्षिण हाथ से लिखी सिखाई, १ हंसलिपि, २ भूतलिपि, ३, यचलिपि, ४ राचसलिपि, ५ यावनी लिपि, ६ तुरकीलिपि, ७ कीरीलिपि, ८ द्रावड़ी लिपि, ६ सैंधवी लिपि, १० मालचीलिपि, ११ नड़ीलिपि, १२ नागरी लिपि, १३ लाटीलिपि, १४ पारसी लिपि, १५ अनिमतीलिपि, १६ चाणक्कीलिपि, १७ मूलदेवीलिपि १८ उड्डीलिपि, ये अठारे ब्राह्मी लिपि नाम से प्रसिद्ध करी, भगवती सूत्र में गणधरों ने ब्राह्मी लिपि को नमन करा है फिर देश भेद से नानालिपि होगई जैसे १ लाटी, २ चौड़ी, ३ डाहली, ४ कनड़ी, ५ गौर्जरी, ६ सोरठी, ७ मरहटी, ८ कोंकणी, खुरासाणी, १० मागधी, ११ सिंहली, १२ हाडी, १३ कोरी, १४ हम्मीरी, १५ परतीरी,१६ मसी, १७ मालत्री, १८ महायोधी, इस काल में कइयां कामदारी, गुरुमुखी, वाणिका आदि अनेक लिपि प्रचलित हैं, इस तरह सुन्दरी पुत्री को वामहस्त से अंक विद्या सिखाई जो जगत् में प्रचलित है। जिन्हों से