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जैनधर्म की प्राचीनता का इतिहास |
अनेक कार्य सिद्ध होते हैं वह सब प्रथम से इस अवसर्पिणी काल में ऋषभदेव ने ये हैं जिस में कितनीक कला कई बेर लुप्त हो जाती हैं और फेर सामग्री पाकर पुनः प्रगट हो जाती हैं, जैसे रेल, तार, बिजली, नाना मिसन अनेक भांति फोनोग्राफ, मोटर, वाइसिकिल, विलोन (विमान) आदि अनेक वस्तु द्रव्यानुयोग जो पहले लिखा है उस के अंतर्गत ही जाननी, परन्तु नवीन विद्या वा कला कोई भी नहीं, शतनी (बंदूक) सहस्रनी (तोप) इस के नाना भेद पूर्वोक्त लोह ज्ञानकला के आवांतर हैं। किसी काल में कागज बनने की क्रिया लोग भूल गये थे तब ताड़ पत्र, भोज पत्र आदि से काम चलाने लगे, तदनंतर फेर सामग्री पाकर कागजों की कला प्रकट हो गई लेकिन जब लिखत कला, चित्रकला तथा ७२ कला के शास्त्र लिखने को अवश्य ही कागज भी ॠरमदेवजी ने बनाना प्रथम प्रचलित कराया, बिना कागद बही खाते व्यापार किसी तरह भी चलना सम्भव नहीं, ऋषभदेव ने सर्व/ कला उत्पन्न करी, यह सव यावश्यक सूत्र में लिखी है, ऋषभदेव ने पूर्व ६३ लाख वर्षों तक राज्य करा, प्रजा को सुख साधन सामग्री तथा नीति में निपुण करा, इस हेतु से ऋषभदेवजी को जैनी लोक जगत् का कर्त्ता मानते हैं परन्तु पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पती, जीव इत्यादि सर्व पदार्थ अनादि अनंत ध्रुव, तीनों काल में मानते हैं, सूक्ष्म अग्नि सब द्रव्यांतर्गत मानते हैं, स्थूलाग्नि को नित्यानित्य मानते हैं, जड़ पदार्थ में नाना कार्यकरणसत्ता, व्यापक है लेकिन चेतनत्व धर्म जीव में है । १. द्रव्य, २ क्षेत्र, ३ काल, की अपेक्षा से दूसरे मतों वाले जो ईश्वर की करी सृष्टि मानते हैं वे भी ईश्वर, आदीश्वर, जगदीश्वर, योगीश्वर, जगत्कर्त्ता, आदिबूझ, आदि विष्णु, श्रादि योगी, आदि भगवान्, आदि अंत, आदि तीर्थकर, प्रथम बुद्ध, सब से बड़ा, यादम, अल्ला, खुदा, रसूल इत्यादि जो नाम महिमा गाते हैं वह सर्व ऋषभदेवजी के ही गुणानुवाद हैं और कोई भी निराकार सृष्टि का कर्चा नहीं है ।
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मूर्ख और अज्ञानियों ने स्वकंपोल कल्पित शास्त्रों में ईश्वर विषय में मनमानी कल्पना करली है, उन कल्पना को बहुत जीव आज तक सच्ची मानते चले आये हैं, कोई तो कहता है' महादेव, (महेश्वर) भ