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श्रीजैनदिग्विजय पताका (सत्यासत्यनिर्णय)।
वन में वांसादिक के आपस में घर्षण होने से अग्नि उत्पन्न भई, कोई । कहेगा ऋषभदेवजी को जाति स्मरण तथा मति आदि तीन ज्ञान था तो. प्रथम ही से अग्नि क्यों नहीं उत्पन्न करली और अग्नि पक आहारादि की विधी क्यों नहीं सिखलाई ? हे भव्य ! एकांतस्निग्ध काल में और एकातः रूक्ष काल में अग्नि किसी वस्तु से भी बाहिर प्रगट नहीं हो सक्ती. श्री। जब सम काल आता है तभी पैदा होती है, प्रत्यक्ष भी एक प्रमाण है चिरकालीन घंध तल घर में अगर दीपक ले जाया जायगा तो तत्काल दीपक स्वतः बुझ जाता है ऐसे पूर्वोक्त काल में कोई देवता बलात्कार विदेह क्षेत्रों से अग्नि ले भी आवे तो उस स्थान तत्काल बुझ जाती है इस वास्ते अग्नि में पकाकर खाना नहीं बतलाया, पीछे वह वनोत्पन्न अग्नि. तृणादि दाहकर्ता देख अपूर्व निर्मल रत्न जाण युगल हार्थोंसे पकड़नेलगे। जब हाथ जल गया तत्र भय से दौड ऋषभदेवजी को सर्व वृत्तांत कहा, प्रभु ने अग्निं दाह निवर्चनी वनौषधी से उन्हों का दग्ध. शरीर अच्छा किया और अग्नि को लाने की विधि बताई, उस क्रिया से वे लोक अग्नि को अपने २ घरों में ले आये तब ऋषभनाथ हस्ती पर आरूढ होकर बहुत पुरुषों के संग गंगातट की चिकणी मट्टी ले एक मृत्पात्र बना कर उन्होंसे अग्नि में पक्ष करा कर उसमें जल का प्रमाण आदि विधि से तंदुलादि पकान कराकर उन्हों को भोजन कराया जिससे वो मृत्पात्र अग्नि पक कराया था उसको कुंभकार प्रजापति नाम से प्रसिद्ध किया तदनंतर शनैः शनैः अनेक भांत के आहार व्यञ्जनादि प्रभु ने सों को पक्क कर खाना सिखाया, विशेष साधन दिन २ प्रति सिखाने लगे, उस अग्नि को प्राण रक्षक समझ लोक देव करके पूजने लगे, क्रम से अग्नि को माननीय किया, अब ऋषमनाथ के उपदेश से पांच मूल शिल्प अर्थात् कारीगर बने। कुंभकार १, लोहकार २, चित्रकार ३, वस्त्र बुनने वाले ४, नापित (नाई), इन एकेक शिल्प के आवांतर भेद, वीश वीश है एवं सौशिल्प का भेदांवर उत्पन्न किया। . __ पीछे कर्म द्वार प्रगट करा, असी शस्त्रों से १ मसी, लिखने वगैरह से, २ कृषि, खेती आदि करने से, ३ आजीविका, उदर वृत्ति सिखलाई, लिखने