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असमर्थ, इस लिए उस्तरे से नापित के पास सिर मुंडवाना शुरू किया, साधु अचित्त प्रामुक जल गृहस्थ का दिया मिले तो लेते हैं, अन्यथा तृषा सह सम्भाव सहते है। मरीचि ने अपने मुखार्थ वस्त्र से छाना हुआ जलार्थ कम धारण किया, सचित्त जल कच्चा सर्वत्र मिल सकता है, जैन साधु ४२ दं विवर्जित श्राहार एषणीय होवे तो लेते है अन्यथा तपोवृद्धि सममाव साधते हैं। मरीचि ने गृहस्थ के घर जैसा मिले वहां जाकर वा निमंत्रण से भोजन करना शुरू किया, पद में पदरक्षा धारण करी, आतप (धूप) रक्षार्थ छत्र धारण किया । जैन मुनि इन दोनों से वर्जित हैं । इस का शिष्य एक राजपूत कपिल देव हुआ, उस ने २५ तत्व कथन किये । अाने शिष्य आसुरी को, फिर क्रम २ से एक सांख्य नाम इन के शिष्य से इस मत का नाम सांख्य प्रसिद्ध हुआ । कपिलदेव ने जगत् का फी ईश्वर है ऐसा नहीं माना, संसार के सर्व भेष एक जैन धर्म । के बिना सर्व का आदि बीज यह कपिलदेव हुआ।
ऋषभदेवजी का बड़ा पुत्र भरत चक्रवर्ती जिसके दिग्विजय से यह षट् खंड भूमि भरतक्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध हुई, उसने अपने ५ भाईयों को अपनी सेवार्थ बुलाये, तब २८ भाई तो भरत की सेवा यदि पिता आज्ञा देंगे तो करेंगे ऐ विचार भगवान् को पूछने कैलास पर गये, तब भगवान् उन को हाथी । कान की तरह चंचल राज्यलक्ष्मी दर्शाकर वैराग्य के उपदेश से साधुनत ग्रहण कराया वे सर्व केवल ज्ञानी होगये, ऐसा स्वरूप सुन भरत सम्राट् चित्त में चिंता करने लगा, प्रभु चित्त में जानते होंगे कि मेरी दी हुई राज्य लक्ष्मी भरत अपने भाइयों से छीननेलगा इसलिये भरत दुर्विनीतहै, इसलिये अब भाइयों को भोजनादि भक्ति कर प्रसन्न कर दो मिना प्रसन्न हो जायगे, ऐसा विचार अनेक भांति के गेजना नामता पूर्वक भोजन