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भूमिका
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१. अहंत सिद्ध देवतत्व-आचार्य, उपध्याय, सर्व साधु, २. गुरुतत्व१) ज्ञान (२) दर्शन (३) चारित्र (४) तप, ये ३ धर्म तत्व, इन ३ , सत्वों की श्रद्धा यह व्यवहार सम्यक्त कहाता है । (१) आत्मा देव (२) आत्मा
पुरु (३) प्रात्मा धर्म, ऐसे स्वरूप का पूर्ण ज्ञान होने से निधय सम्यक्त कहाता है । व्यवहार कारण निधय कार्य है, जैन धर्म के मूल प्रकाराक, काम क्रोधादि 'दोष विमुक्त सर्वज्ञ सर्वदशी, विशिष्टात्मा इंद्रादि देवताओं के तथा चक्रवर्ती आदि
नरेंद्र गण के, द्रव्य भाव से पूजा के योग्य होने से अहंत परमेश्वर है । अनंत ७ उत्सपिणी, अवसप्पिणी कालचक्र प्रथम भूतकाल में अनंत चोवीसी के अहंत होकर धर्म उपदेश से अनंत जीवों को जन्म मरण से रहित कर श्राप परमात्म पद में प्राप्त हुए। इस अवसपिणी काल में ऋषभादि चौवीस हुए। प्रथम अर्हत ऋषम देव मौनधर छन्नस्य अवस्था में गृहधर्म, राज्यधर्म त्याग एक सहसू वर्ष ध्यान मम हो देश २ प्रति विचरते रहे, उस समय यह समुद्र जगती के बाहिर था इस लिए भगवान् स्वर्ण भूमि तक्षला आदि जो इस समय अनार्य देश हो रहे है, उन सब में विचरते थे, उन का दर्शन जिन्हों ने किया उन की आर्य बुद्धि होगई थी, हजार वर्ष के अनंतर जब केवल ज्ञान केवल दर्शन आत्म स्वभाव पूर्ण संप प्रकटा, उस समय देव मनुष्यगण के समक्ष परम अहिंसा रूप जो धर्म । उपदेश किया वहीं धर्म गृह जैन है । उन ऋषभदेव का कहा सात विभाग रूप । जयवाद का एक २ पाद, बहुशु कका ऑर्षपद, धर्म कथक हेतु युक्ति दृष्टांत द्वारीन का
व्यास पद, कल्याणक तपकर्ताओं को कल्याण पद, इन्हों में अग्रगण्य को पुरोहित पद एवं पर्वतिथि में पोसह करनेसे पोसहकरना जाति स्थापन करी, चार वेद पाठी, चउन्वेयी । इस प्रकार वृद्धश्रावक महामाहन की उत्पत्ति हुई। एकदा मरत समाद ने भगवान् से विनती करी कि हे तरणतारण! आप सर्वसंसार धर्म गृहस्थ अवस्था में • प्रवचन कर १. उस २. भोग ३. राजन्य १. क्षत्रिय एवं ४ कुलस्थापन किये तैसे मैले धमी नन का माहन वंश स्थापन कर सर्व अधिकार सामान्य प्रजागण को
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