________________
[ ग ] किसको खिलाऊं वहां सौ धर्मेन्द्र ने भरत का खेद मिटाने के लिये कहा हे सार्वभौम ! तेरे से जो गुणों में अधिक हो उनको यह भोजन करा, तव भरतचक्री प्रसन्न हो अयोध्या आया, अपने से गुणों में अधिक द्वादशव्रत धारक श्रावक धर्मी जनों को जान कर उन को बुलाया। वे उस समय उत्कृष्टधर्मी पांचसय संख्या वाले अयोध्या में थे उन को वह भोजन कराया, उन की आचरणा से भरत अत्यन्त हर्षित हुआ और कहने लगा मेरे. सर्वदा कोट्यावधि जीव भोजन करते हैं वह सर्व स्वार्थ है, आप जैसे धर्मी जन सुपात्रों को भोजन कराना निरंतर परमार्थ रूप है। आप मेरे यहां सर्वदा भोजन किया करें, तब उन्हों ने कहा हे नरपति ! पर्व तिथि आदि में तो हम उपोषित रहते है, सामान्य दिवस में भी एकासन से न्यून तप नहीं करते, बाकी अविल निवि आदि तप पोसह, षडावश्यक, देशावगासिक आदि भाव क्रिया, जिनार्चन आदि नित्य कर्त्तव्य हमारा है। तब भरत राजा उन के धर्म कर्त्तव्य करने, पोषघशाला तथाल्यथा रुचि भोजन भक्ति करने को चार सूपकार (रसोईदार) अन्य खिदमतगार का प्रबन्ध कर उन को अपने सभा मंडप के समीप धर्म करने, भोजन करने तथा रहने की आज्ञा दी।
वे वृद्ध श्रावक महा माहण कहलाये, इन के पठन पाठनार्थ चार वेद भरत राय ने ऋषमदेव के उपदेशित गृहस्थ धर्मानुकूल रचे । दर्शन वेद १ (सम्यक्त का खरूप) दर्शन संस्थापन परामर्शन वेद २ (इसमें दर्शन पर कुतर्क करने वालों का समाधान) तत्वावबोधवेद ३ (इसमें नवतत्व षद्रव्य श्राद्धबत साधुव्रतादि मोक्ष मार्ग) विद्या प्रबोध वेद ४(इसमें व्याकरणादि षट् शास्त्र ७२ कला विज्ञान आदि) इन चार वेद को पढकर जो५ श्राचार की शिक्षा करते थे उन को षट् माम की अनुयोग परीक्षा करने पर प्राचार्यपद जो अन्य माहन को ४ वेद का अध्ययन कराते थे, उन को उवझाय पद, बहु श्रुति को आर्षपद, धर्म कथक हेतु युक्ति दृष्टांत द्वारा उनको व्यास पद, कल्याणक तपकर्ताओं को कल्याण पद, इन्हों में अग्रगण्य को पुरोहित पद एवं पर्वतिथि में पोसह करनेसे पोसहकरना जाति स्थापन करी, चार वेद पाठी, चउन्वेयी । इस प्रकार वृद्धश्रावक महामाहन की उत्पत्ति हुई। एकदा भरत सम्राट ने भगवान् से विनती करी कि हे तरणतारण! आप सर्वसंसार धर्म गृहस्थ अवस्था में प्रवर्तन कर १. उग्र २. भोग ३. राजन्य ४. क्षत्रिय एवं ४ कुलस्थापन किये तैसे मैने धर्मी जन का माहन बंश स्थापन कर सर्व अधिकार सामान्य प्रजागरण को