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________________ जैनदर्शन कालवाद: इस प्रश्नोत्तरमें जिन कालादिवादोंका उल्लेख है वे मत आज भी विविध रूपमें वर्तमान हैं। महाभारतमें' ( आदिपर्व ११२७२-२७६ ) कालवादियोंका विस्तृत वर्णन है। उसमें बताया है कि जगत्के समस्त भाव और अभाव तथा सुख और दुःख कालमूलक हैं । काल ही समस्त भूतोंकी सृष्टि करता है, संहार करता है और प्रलयको प्राप्त प्रजाका शमन करता है। संसारके समस्त शुभ अशुभ विकारोंका काल ही उत्पादक है। काल ही प्रजाओंका संकोच और विस्तार करता है। सब सो जाँय पर काल जाग्रत रहता है। सभी भूतोंका वही चालक है । अतीत, अनागत और वर्तमान यावत् भावविकारोंका काल ही कारण है। इस तरह यह दुरतिक्रम महाकाल जगत्का आदिकारण है। परन्तु एक अखंड नित्य और निरंश काल परस्पर विरोधी अनन्तपरिणमनोंका क्रमसे कारण कैसे हो सकता है ? कालरूपी समर्थ कारणके सदा रहते हुए भी अमुक कार्य कदाचित् हो, कदाचित् नहीं, यह नियत व्यवस्था कैसे संभव हो सकती है ? फिर काल अचेतन है, उसमें नियामकता स्वयं संभव नहीं हो सकती। जहाँ तक कालका स्वभावसे परिवर्तन करनेवाले यावत् पदार्थों में साधारण उदासीन कारण होना है वहाँ तक कदाचित् वह उदासीन निमित्त बन भी जाय, पर प्रेरक निमित्त और एकमात्र निमित्त तो नहीं हो सकता। यह नियत कार्यकारणभावके सर्वथा प्रतिकूल है। कालकी समानहेतुता होनेपर भी मिट्टीसे ही घड़ा उत्पन्न हो और तंतुसे ही पट, यह प्रतिनियत लोकव्यवस्था नहीं जम सकती। अतः प्रतिनियत कार्योंकी उत्पत्तिके लिये प्रतिनियत उपादान तथा सबके स्वतन्त्र कार्यकारणभाव स्वीकार करना चाहिये । स्वभाववाद: स्वभाववादीका कहना है कि कांटोंका नुकीलापन, मृग और पक्षियोंके चित्र-विचित्र रंग, हंसका शुक्लवर्ण होना, शुकोंका हरापन और मयूरका चित्रविचित्र वर्णका होना आदि सब स्वभावसे हैं । सृष्टिका नियन्त्रक कोई नहीं है । १. “कालः सृजति भूतानि कालः संहरते प्रजाः । कालः सुप्तेषु जागति कालो हि दुरतिक्रमः ॥"-महाभा० ११२४८ २. उक्तं च "कः कण्टकानां प्रकरोति तैक्षण्यं विचित्रभावं मृगपक्षिणां च । . स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं न कामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्नः ॥" --सूत्रकृताङ्गटी०। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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