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________________ लोकव्यवस्था इस जगत्को विचित्रताका कोई दृष्ट हेतु उपलब्ध नहीं होता, अतः यह सब स्वाभाविक है, निर्हेतुक है। इसमें किसीका यत्न कार्य नहीं करता, किसीकी इच्छाके अधीन यह नहीं है। इस वादमें जहाँ तक किसी एक लोक-नियन्ताके नियन्त्रणका विरोध है वहाँ तक उसकी युक्तिसिद्धता है। पर यदि स्वभाववादका अर्थ अहेतुकवाद है, तो यह सर्वथा बाधित है, क्योंकि जगत्में अनन्त कार्योंकी अनन्त कारणसामग्री प्रतिनियत रूपसे उपलब्ध होती है। प्रत्येक पदार्थका अपने संभव कार्योंके करनेका स्वभाव होने पर भी उसका विकास बिना सामग्रीके नहीं हो सकता। मिट्टीके पिंडमें घड़ेको उत्पन्न करनेका स्वभाव विद्यमान होनेपर भी उसकी उत्पत्ति दंड, चक्र, कुम्हार आदि पूर्ण सामग्रीके होनेपर ही हो सकती है। कमलकी उत्पत्ति कीचड़से होती है; अतः पंक आदि सामग्रीकी कमलकी सुगन्ध और उसके मनोहर रूपके प्रति हेतुता स्वयं सिद्ध है, उनमें स्वभावको ही मुख्यता देना उचित नहीं है। यह ठीक है कि किसानका पुरुषार्थ खेत जोतकर बीज बो देने तक है, आगे कोमल अंकुरका निकलना तथा उससे क्रमशः वृक्षके बन जाने रूप असंख्य कार्यपरम्परामें उसका साक्षात् कारणत्व नहीं है, परन्तु यदि उसका उतना भी प्रथम-प्रयत्न नहीं होता, तो बीजका वह वृक्ष बननेका स्वभाव बोरेमें पड़ा-पड़ा सड़ जाता। अतः प्रतिनियत कार्योंमें यथासंभव पुरुषका प्रयत्न भी कार्य करता है। साधारण रुई कपासके बीजसे सफेद रंगकी उत्पन्न होती है। पर यदि कुशल किसान लाखके रंगसे कपासके बीजोंको रंग देता है तो उससे रंगीन रुई भी उत्पन्न हो जाती है। आज वैज्ञानिकोंने विभिन्न प्राणियोंकी नस्लपर अनेक प्रयोग करके उनके रंग, स्वभाव, ऊँचाई और वजन आदिमें विविध प्रकारका विकास किया है। अतः "न कामचारोऽस्ति कूतः प्रयत्नः ?" जैसे निराशावादसे स्वभाववादका आलम्बन लेना उचित नहीं है । हाँ, सकल जगत्के एक नियन्ताकी इच्छा और प्रयत्नका यदि इस स्वभाववादसे विरोध किया जाता है तो उसके परिणामसे सहमति होनेपर भी प्रक्रियामें अन्तर है। अन्वय और व्यतिरेकके द्वारा असंख्य कार्योंके असंख्य कार्यकारणभाव निश्चित होते हैं और अपनी-अपनी कारण-सामग्रीसे असंख्य कार्य विभिन्न विचित्रताओंसे युक्त होकर उत्पन्न होते और नष्ट होते हैं । अतः स्वभावनियतता होनेपर भी कारणसामग्री और जगत्के नियत कार्यकारणभावकी ओरसे आँख नही मुंदी जा सकती। नियतिवाद : नियतिवादियोंका कहना है कि जिसका, जिस समयमें, जहाँ, जो होना है वह होता ही है । तीक्ष्ण शस्त्रघात होनेपर भी यदि मरण नहीं होना है तो व्यक्ति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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