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________________ लोकव्यवस्था स्वतन्त्र रहते हैं। उन्हींकी चेतना विकसित होकर कीड़ा-मकोड़ा, पशु-पक्षी, मनुष्य-देव आदि विविध विकासको श्रेणियोंपर पहुँच जाती है। वही कर्मबन्धन काटकर सिद्ध भी हो जाती है। सारांश यह कि प्रत्येक संसारी जीव और पुद्गलाणुमें सभी सम्भाव्य द्रव्यपरिणमन साक्षात् या परम्परासे सामग्रीकी उपस्थितिमें होते रहते हैं। ये कदाचित् समान होते हैं और कदाचित् असमान । असमानताका अर्थ इतनी असमानता नहीं है कि एक द्रव्यके परिणमन दूसरे सजातीय या विजातीय द्रव्यरूप हो जॉय और अपनी पर्यायपरम्पराकी धाराको जाँघ जाय । उन्हें अपने परिणामी स्वभावके कारण उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक परिणमन करना ही होगा। किसी भी क्षण वे परिणामशून्य नहीं हो सकते । "तद्भावः परिणामः" [ तत्त्वार्थसूत्र ५।४२ ]। उस सत्का उसी रूपमें होना, अपनी सीमाको नहीं लाँघ कर होते रहना, प्रतिक्षण पर्यायरूपसे प्रवहमान होना ही परिणाम है। न वह उपनिषद्वादियोंकी तरह कूटस्थ नित्य है और न बौद्धके दीपनिर्वाणवादी पक्षकी तरह उच्छिन्न होनेवाला ही। सच पूछा जाय तो बुद्धने जिन दो अन्तों ( छोरों) से डरकर आत्माका अशाश्वत और अनुच्छिन्न इस उभय प्रतिषेधके सहारे कथन किया या उसे अव्याकृत कहा और जिस अव्याकृतताके कारण निर्वाणके सम्बन्धमें सन्तानोच्छेदका एक पक्ष उत्पन्न हुआ, उस सर्वथा उभय अन्तका तात्त्विक दृष्टिसे विवेचन अनेकान्तद्रष्टा भ० महावीरने किया और बताया कि प्रत्येक वस्तु अपने 'सत्' रूपको त्रिकालमें नहीं छोड़ती, इसलिए धाराकी दृष्टिसे वह शाश्वत है, और चूंकि प्रतिक्षणको पर्याय उच्छिन्न होती जाती है, अतः उच्छिन्न भी है। वह न तो संतति-विच्छेद रूपसे उच्छिन्न ही है और न सदा अविकारी कूटस्थके अर्थमें शाश्वत ही। विश्वकी रचना या परिणमनके सम्बन्धमें प्राचीनकालसे ही अनेक पक्ष देखे जाते हैं। श्वेताश्वतरोपनिषत् ' में ऐसे ही अनेक विचारोंका निर्देश किया है । वहाँ प्रश्न है कि 'विश्वका क्या कारण है ? कहाँसे हम सब उत्पन्न हुए हैं ? किसके बलपर हम सब जीवित हैं ? कहाँ हम स्थित हैं ? अपने सुख और दुःखमें किसके अधीन होकर वर्तते हैं ?' उत्तर दिया है कि 'काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा ( इच्छानुसार-अटकलपच्चू ), पृथिव्यादिभूत और पुरुष ये जगत्के कारण हैं, यह चिन्तनीय है। इन सबका संयोग भी कारण नहीं है। सुख-दुःखका हेतु होनेसे आत्मा भी जगत्को उत्पन्न करनेमें असमर्थ है। १. "काल: स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्यम् । संयोग एषां न स्वात्मभावादात्माप्यनीशः सुखदुःखहेतोः॥"-श्वेता० १॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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