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________________ जैनदर्शन है, घड़ा बन सकता है और पत्थर बन सकता है तथा तैलके आकार हो सकता है । परन्तु लाख प्रयत्न होनेपर भी पत्थररूप पुद्गलसे तैल नहीं निकल सकता, यद्यपि तैल पुद्गलकी ही पर्याय है । मिट्टीसे कपड़ा नहीं बन सकता, यद्यपि कपड़ा भी पुद्गलका ही एक विशेष परिणमन है। हाँ, जब पत्थर-स्कन्धके पुद्गलाणु खिरकर मिट्टीमें मिल जाय और खाद बन कर तैलके पौधेमें पहँचकर तिल बीज बन जाये तो उससे तैल निकल हो सकता है। इसी तरह मिट्टी कपास बनकर कपड़ा बन सकती है पर साक्षात् नहीं। तात्पर्य यह कि पुद्गलाणुओंमें समान शक्ति होने पर भी अमुक स्कन्धोंसे साक्षात् उन्हीं कार्योंका विकास हो सकता है जो उस पर्यायसे शक्य हों और जिनको निमित्त-सामग्री उपस्थित हो। अतः संसारी जीव और पुद्गलोंकी स्थिति उस मोम जैसी है जिसे संभव साँचोंमें ढाला जा सकता है और जो विभिन्न साँचोंमें ढलते जाते हैं। निमित्तभूत पुद्गल या जीव परस्पर भी प्रभावित होकर विभिन्न परिणमनोंके आधार बन जाते हैं। एक कच्चा घड़ा अग्निमें जब पकाया जाता है तब उसमें अनेक जगहके पुद्गल स्कन्धोंमें विभिन्न प्रकारसे रूपादिका परिपाक होता है। इसी तरह अग्निमें भी उसके सन्निधानसे विचित्र परिणमन होते हैं । एक ही आमफलमें परिपाकके अनुसार कहीं खट्टा और कहीं भीठा रस तथा कहीं मृदु और कहीं कठोर स्पर्श एवं कहीं पीत रूप और कहीं हरा रूप हमारे रोजके अनुभवकी बात है। इससे उस आम्र स्कन्धगत परमाणुओंका सम्मिलित स्थूल-आम्रपर्यायमें शामिल रहने पर भी स्वतन्त्र अस्तित्व भी बराबर बना रहता है, यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है। उस स्कन्धमें सम्मिलित परमाणुओंका अपना-अपना स्वतन्त्र परिणमन बहुधा एक प्रकारका होता है। इसीलिये उस औसत परिणमनमें 'आम्र' संज्ञा रख दी जाती है। जिस प्रकार अनेक पुद्गलाणु द्रव्य सम्मिलित होकर एक साधारण स्कन्ध पर्यायका निर्माण कर लेते हैं फिर भी स्वतन्त्र हैं. उसी तरह संसारी जीवोंमें भी अविकसित दशामें अर्थात् निगोदकी अवस्थामें अनन्त जीवोंके साधारण सदृश परिणमनकी स्थिति हो जाती है और उनका उस समय साधारण आहार, साधारण श्वासोच्छ्रास, साधारण जोवन और साधारण ही मरण होता है । एकके मरने पर सब मर जाते हैं और एकके जीवित रहने पर भी सब जीवित रहते हैं। ऐसी प्रवाहपतित साधारण अवस्था होने पर उनका अपना व्यक्तित्व नष्ट नहीं होता, प्रत्येक अपना विकास करनेमें १. “साहारणमाहारो साहारणमाणपाणगहणं च । साहारणजीवाणं साहारणलक्खणं भणियं ॥" -गोम्मटसार जी० गा० १९१ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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