SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५८ जैनदर्शन ईंधन स्वयं या किसी पुरुषके प्रयत्नसे पहुँच जाय तो धूम उत्पन्न हो जायगा, अन्यथा अग्नि धीरे-धीरे राख हो जायगी। कोई द्रव्य जबरदस्ती किसी दूसरे द्रव्यमें असंभवनीय परिवर्तन उत्पन्न नहीं कर सकता । प्रयत्न करनेपर भी अचेतनसे चेतन नहीं बन सकता और न एक चेतन चेतनान्तर या अचेतन या अचेतन अचेतनान्तर ही हो सकता है । सब अपनी-अपनी पर्यायधारामें प्रवहमान हैं। वे प्रत्येक क्षणमें नवीन-नवीन पर्यायोंको धारण करते हुए स्वमग्न हैं। वे एक-दूसरेके सम्भवनीय परिणमनके प्रकट करने में निमित्त हो भी जाँय, पर असंभव या असत् परिणमन उत्पन्न नहीं कर सकते । आचार्य कुन्दकुन्दने बहुत सुन्दर लिखा है अण्णदविएण अण्णदव्वस्स णो कीरदे गुणुप्पादो। तम्हा दु सव्वदव्वा उप्पजन्ते सहावेण ॥" -समयसार गा० ३७२ । अर्थात्-एक द्रव्य दूसरे द्रव्यमें कोई भी गुणोत्पाद नहीं कर सकता। सभी द्रव्य अपने-अपने स्वभावसे उत्पन्न होते हैं। ___इस तरह प्रत्येक द्रव्यकी परिपूर्ण अखंडता और व्यक्ति स्वातन्त्र्यकी चरम निष्ठापर सभी अपने-अपने परिणाम-चक्रके स्वामी हैं। कोई किसीके परिणमनका नियन्त्रक नहीं है और न किसीके इशारेपर इस लोकका निर्माण या प्रलय होता है। प्रत्येक 'सत्' का अपने गुण और पर्यायपर ही अधिकार है, अन्य द्रव्यका परिणमन तदधीन नहीं है। इतनी स्पष्ट और असन्दिग्ध स्थिति प्रत्येक सत्की होनेपर भी पुद्गलोंमें परस्पर तथा जीव और पुद्गलका परस्पर एवं संसारी जीवोंका परस्पर प्रभाव डालनेवाला निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध भी है। जल यदि अग्नि पर गिर जाता है तो उसे बुझा देता है और यदि वह किसी बर्तनमें अग्निके ऊपर रखा जाता है तो अग्नि ही उसके सहज शीतल स्पर्शको बदलकर उसको उष्णस्पर्श स्वीकार करा देती है। परस्परकी पर्यायमें इस तरह प्रभावक निमित्तता होने पर भी समस्त लोकरचनाके लिए कोई नित्यसिद्ध ईश्वर निमित्त या उपादान होता हो, यह बात न केवल युक्तिविरुद्ध ही है किन्तु द्रव्योंके निजस्वभावके विपरीत भी है। कोई भी द्रव्य सदा अविकारी नित्य हो ही नहीं सकता। अनन्त पदार्थों की अनन्त पर्यायोंपर नियन्त्रण रखने जैसा महाप्रभुत्व न केवल अवैज्ञानिक है किन्तु पदार्थ-स्थितिके विरुद्ध भी है। निमित्त और उपादान : जो कारण स्वयं कार्यरूपमें परिणत हो जाय वह उपादान कारण है और जो स्वयं कार्यरूप परिणत तो न हो, पर उस परिणमनमें सहायता दे वह निमित्त या Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy