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________________ जैनदर्शन कराता है । इस तरह भगवान् महावीरने सर्वथा एकांश प्रतिपादिका वाणीको भी 'स्यात् ' संजीवनके द्वारा वह शक्ति दो, जिससे वह अनेकान्तका मुख्य- गौण भावसे द्योतन कर सकी । यह 'स्याद्वाद' जैनदर्शनमें सत्यका प्रतीक बना है । ४६ धर्मज्ञता और सर्वज्ञता : भगवान् महावीर और बुद्धके सामने एक सीधा प्रश्न था कि धर्म जैसा जीवंत पदार्थ, जिसके ऊपर इहलोक और परलोकका बनाना और बिगाड़ना निर्भर करता है, क्या मात्र वेदके द्वारा निर्णीत हो या उसमें द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी मर्यादाके अनुसार अनुभवी पुरुष भी अपना निर्णय दें ? वैदिक परम्पराकी इस विषय में दृढ़ और निर्बाध श्रद्धा है कि धर्म में अन्तिम प्रमाण वेद है और जब धर्म जैसा अतीन्द्रिय पदार्थ मात्र वेदके द्वारा ही जाना जा सकता है तो धर्म जैसे अतिसूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट अन्य पदार्थ भी वेदके द्वारा ही ज्ञात हो सकेंगे, इनमें पुरुषका ज्ञान साक्षात् प्रवृत्ति नहीं कर सकता । पुरुष प्रायः राग, द्वेष और अज्ञान दूषित होते हैं । उनका आत्मा इतना निष्कलंक और ज्ञानवान् नहीं हो सकता, जो प्रत्यक्षसे अतीन्द्रियदर्शी हो सके । न्याय-वैशेषिक और योग परम्पराओंने वेदको उस नित्य ज्ञानवान् ईश्वरकी कृति माना, जो अनादिसिद्ध है । ऐसा नित्य ज्ञान दूसरी आत्माओंमें संभव नहीं है । निष्कर्ष यह कि वर्तमान वेद, चाहे वह अपौरुषेय हो या अनादिसिद्ध ईश्वरकर्तृक, शाश्वत है और धर्मके विषय में अपनी निर्बाध सत्ता रखता है । अन्य महर्षियोंके द्वारा रची गई स्मृतियाँ आदि यदि वेदानुसारिणी हैं, तो ही प्रमाण हैं अन्यथा नहीं; यानी प्रमाणताकी ज्योति वेदकी अपनी है । लौकिक व्यवहारमें शब्दकी प्रमाणताका आधार निर्दोषता है । वह निर्दोषता दो ही प्रकारसे आती है— एक तो गुणवान् वक्ता होनेसे और दूसरे, वक्ता ही न होनेसे | आचार्य कुमारिल स्पष्ट लिखते हैं कि ' शब्द में दोषोंकी उत्पत्ति वक्ता होती है । उनका अभाव कहीं तो गुणवान् वक्ता होनेसे हो जाता है; क्योंकि वक्ता यथार्थवेदित्व आदि गुणोंसे दोषोंका अभाव होनेपर वे दोष शब्दमें अपना स्थान नहीं जमा पाते । दूसरे, वक्ताका अभाव होनेसे निराश्रय दोष नहीं रह तदभावः १. “शब्दे दोषोद्भवस्तावद् वक्त्रधीन इति स्थितम् । क्वचित्तावद् गुणवक्तृकत्वतः ॥ ६२ ॥ तद्गुणैरपकृष्टानां शब्दे संक्रान्त्यसंभवात् । या वक्तुरभावेन न स्युदोंषा निराश्रयाः ॥ ६३ ॥” Jain Educationa International For Personal and Private Use Only - मी० श्लो० चोदना० । - www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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