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भारतीय दर्शनको जैनदर्शनकी देन
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सकते । पुरुष प्रायः अनृतवादी होते हैं । अतः इनके वचनोंको धर्मके मामले में प्रमाण नहीं माना जा सकता। ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर आदि देव वेददेह होनेसे ही प्रमाण हैं । और इसका यह फल था कि वेदसे जन्मसिद्ध वर्णव्यवस्था तथा स्वर्गप्राप्तिके लिये अजमेध, अश्वमेध, गोमेध यहाँ तक कि नरमेध आदिका जोरोंसे प्रचार था। आत्माकी आत्यन्तिक शुद्धिकी सम्भावना न होनेसे जीवनका लक्ष्य ऐहिक स्वर्गादि विभूतियोंकी प्राप्ति तक ही सीमित था। श्रेयकी अपेक्षा प्रेयमें ही जीवनकी सफलता मान ली गई थी। निर्मल आत्मा स्वयं प्रमाण :
किन्तु भ० महावीरने राग, द्वेष आदिके क्षयका तारतम्य देखकर आत्माकी पूर्ण वीतराग शुद्ध अवस्था तथा ज्ञानको परिपूर्ण निर्मल दशाको असंभव नहीं माना और उनने अपनी स्वयं साधना द्वारा निर्मल ज्ञान तथा वीतरागता प्राप्त की। उनका सिद्धान्त था कि पूर्ण ज्ञानी वीतराग अपने निर्मल ज्ञानसे धर्मका साक्षात्कार कर सकता और द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी परिस्थितिके अनुसार उसके स्वरूपका निर्माण भी वह करता है । युग-युगमें ऐसे ही महापुरुष धर्मतीर्थके कर्ता होते हैं और मोक्षमार्गके नेता भी। वे अपने अनुभूत धर्ममार्गका प्रवर्तन करते हैं, इसीलिए उन्हें तीर्थंकर कहते हैं। वे धर्मके नियम-उपनियमोंमें किसी पूर्वश्रुत या ग्रन्थका सहारा न लेकर अपने निर्मल अनुभवके द्वारा स्वयं धर्मका साक्षात्कार करते हैं और उसी मार्गका उपदेश देते हैं। जब तक उन्हें केवलज्ञान प्राप्त नहीं हो जाता तब तक वे मौन रहते हैं और मात्र आत्मसाधनामें लीन रहकर उस क्षणकी प्रतीक्षा करते हैं जिस क्षणमें उन्हें निर्मल बोधिकी प्राप्ति होती है। यद्यपि पूर्व तीर्थंकरोंद्वारा प्रणीत श्रुत उन्हें विरासतमें मिलता है, परन्तु वे उस पूर्व श्रुतके प्रचारक न होकर स्वयं अनुभूत धर्मतीर्थकी रचना करते हैं, इसलिये वे तीर्थंकर कहे जाते हैं । यदि वे पूर्व श्रुतका ही मुख्यरूपसे सहारा लेते तो उनकी स्थिति आचार्योंसे अधिक नहीं होती। यह ठीक है कि एक तीर्थंकरका उपदेश दूसरे तीर्थंकरसे मूलसिद्धान्तोंमें भिन्न नहीं होता; क्योंकि सत्य त्रिकालाबाधित होता है और एक होता है। वस्तुका स्वरूप भी जब सदासे एक मूल धारामें प्रवाहित है तब उसका मूल साक्षात्कार विभिन्न कालोंमें भी दो प्रकारका नहीं हो सकता। श्रीमद् रायचन्द्रने ठीक ही कहा है कि-"करोड ज्ञानियोंका एक ही विकल्प होता है जब कि अज्ञानीके करोड़ विकल्प होते हैं।" इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि करोड़ ज्ञानी अपने निर्मल ज्ञानके द्वारा चूंकि सत्यका साक्षात्कार करते हैं, अतः उनका पूर्ण साक्षात्कार दो प्रकारका नहीं हो सकता। जब कि एक अज्ञानी
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