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भारतीय दर्शनको जैनदर्शनकी देन
गौण हैं । यद्यपि हमेशा 'स्यात्' शब्दके प्रयोगका नियम नहीं है, किन्तु वह समस्त वाक्योंमें अन्तर्निहित रहता है । कोई भी वाक्य अपने प्रतिपाद्य अंशका अवधारण करके भी वस्तुगत शेष अंशोंको गौण तो कर सकता है पर उनका निराकरण करके वस्तुको सर्वथा ऐकान्तिक नहीं बना सकता, क्योंकि वस्तु स्वरूपसे अनेकान्त - अनेक धर्मवाली है ।
'स्यात्' का अर्थ 'शायद' नहीं :
'स्यात्' शब्द हिन्दी भाषामें भ्रान्तिवश शायदका पर्यायवाची समझा जाने लगा है । प्राकृत और पाली में 'स्यात्' का 'सिया' रूप होता है । यह वस्तुके सुनिश्चित भेदों के साथ सदा प्रयुक्त होता रहा है । जैसे कि 'मज्झिमनिकाय' के 'महाराहुलोवादसुत्त' में आपो धातुका वर्णन करते हुए लिखा है कि "कतमा च राहुल आपोधातु ?" "आपोधातु सिया अज्झत्तिका सिया बाहिरा" अर्थात् आपोधातु ( जल ) कितने प्रकारकी है ? आपोधातु स्यात् आभ्यन्तर है और स्यात् बाह्य । यहाँ आभ्यन्तर धातुके साथ 'सिया' शब्दका प्रयोग आपोधातुके आभ्यन्तर भेदके सिवा द्वितीय बाह्य भेदकी सूचनाके लिए है, और बाह्य के साथ 'सिया' शब्दका प्रयोग बाह्यके सिवा आभ्यन्तर भेदकी सूचना देता है । अर्थात् 'आपो' धातु न तो बाह्यरूप ही है और न आभ्यन्तररूप ही । इस उभयरूपताकी सूचना 'सिया' - 'स्यात्' शब्द देता है । यहाँ न तो 'स्यात्' शब्दका 'शायद' ही अर्थ है, और न 'संभव' और न 'कदाचित्' ही । क्योंकि 'आपो' और शायद बाह्य नहीं है और न संभवतः आभ्यन्तर और • कदाचित् आभ्यन्तर और बाह्य अपितु उभय भेदवाली है
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'स्यात् ' अविवक्षितका सूचक :
इसी तरह प्रत्येक धर्मवाची शब्द के साथ जुड़ा हुआ 'स्यात्' शब्द एक सुनिश्चित दृष्टिकोणसे उस धर्मका वर्णन करके भी अन्य अविवक्षित धर्मोका अस्तित्व भी वस्तु द्योतित करता है । कोई ऐसा शब्द नहीं है, जो वस्तुके पूर्ण रूपको स्पर्श कर सके । हर शब्द एक निश्चित दृष्टिकोण से प्रयुक्त होता है और अपने विवक्षित धर्मका कथन करता है । इस तरह जब शब्दमें स्वभावतः विवक्षानुसार अमुक धर्म के प्रतिपादन करनेकी ही शक्ति है, तब यह आवश्यक हो जाता है कि अविवक्षित शेष धर्मोकी सूचनाके लिए एक 'प्रतीक' अवश्य हो, जो वक्ता और श्रोताको भूलने न दे । 'स्यात्' शब्द यही कार्य करता है । वह श्रोताको विवक्षित धर्मका प्रधानतासे ज्ञान कराके भी अविवक्षित धर्मोके अस्तित्वका द्योतन
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धातु शायद आभ्यन्तर
संभवतः बाह्य और न
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