SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनदर्शन होता । पर अहंकार और शासनकी भावना मानवको दानव बना देती है; और उसपर मत और धर्मका 'अहम्' तो अतिदुर्निवार होता है । युग-युगमें ऐसे ही दानवको मानव बनानेके लिए अहिंसक सन्त इसी समन्वयदृष्टिका, इसी समताभावका और इसी सर्वाङ्गीण अहिंसाका उपदेश देते आये हैं । यह जैनदर्शनकी ही विशेषता है, जो वह अहिंसाकी तह तक पहुँचने के लिए केवल धार्मिक उपदेश तक ही सीमित नहीं रहा, अपितु वास्तविक आधारसे मतवादोंकी गुत्थियोंको सुलझानेकी मौलिक दृष्टि भी खोज सका । उसने न केवल दृष्टि ही खोजी, किन्तु मन, वचन और काय इन तीनों द्वारोंसे होनेवाली हिंसाको रोकनेका प्रशस्ततम मार्ग भी उपस्थित किया । ४२ अहिंसाका आधारभूत तत्त्वज्ञान अनेकान्तदर्शन : व्यक्तिकी मुक्ति के लिये या चित्तशुद्धि और वीतरागता प्राप्त करनेके लिए अहिंसाकी ऐकान्तिक चारित्रगत साधना उपयुक्त हो सकती है, किन्तु संघरचना और समाज में उस अहिंसाकी उपयोगिता सिद्ध करनेके लिए उसके तत्त्वज्ञानकी खोज न केवल उपयोगी ही है, किन्तु आवश्यक भी है। भगवान् महावीर के संघ में सर्वप्रथम इन्द्रभूति आदि ग्यारह ब्राह्मण विद्वान् दीक्षित हुए थे, वे आत्माको नित्य मानते थे । उधर अजितकेश - कम्बलिका उच्छेदवाद भी प्रचलित था । उपनिषदोंके उल्लेखोंके अनुसार विश्व सत् है या असत् उभय है या अनुभय, इस प्रकार की विचारधाराएँ उस समय के वातावरणमें अपने-अपने रूपमें प्रवाहित थीं । महावीरके वीतराग करुणामय शान्त स्वरूपको देखकर जो भव्यजन उनके धर्म में दीक्षित होते थे, उन पचमेल शिष्योंकी विविध जिज्ञासाओंका वास्तविक समाधान यदि नहीं किया जाता तो उनमें परस्पर स्वमत पुष्टिके लिए वादविवाद चलते और संघभेद हुए बिना नहीं रहता । चित्तशुद्धि और विचारोंके समीकरणके लिए यह नितान्त आवश्यक था कि वस्तुस्वरूपका यथार्थ निरूपण हो । यही कारण है कि भगवान् महावीरने वीतरागता और अहिंसाके उपदेशसे पारस्परिक बाह्य व्यवहारशुद्धि करके ही अपने कर्त्तव्यको समाप्त नहीं किया; किन्तु शिष्योंके चित्त में अहंकार और हिंसाको बढ़ानेवाले इन सूक्ष्म मतवादों की जो जड़ें बद्धमूल थीं, उन्हें उखाड़नेका आन्तरिक ठोस प्रयत्न किया । वह प्रयत्न था वस्तुके विराट् स्वरूपका यथार्थ दर्शन । वस्तु यदि अपने मौलिक अनादिअनन्त असंकर प्रवाहकी दृष्टिसे नित्य है, तो प्रतिक्षण परिवर्तमान पर्य्यायोंकी दृष्टिसे अनित्य भी । द्रव्यकी दृष्टिसे सत्से ही सत् उत्पन्न होता है, तो पर्य्यायकी दृष्टिसे असत्से सत् । इस १. “ एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति ।" ऋग्वेद १।१६४।४६ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy