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________________ भारतीय दर्शनको जैनदर्शनकी देन ४३ तरह जगत्के यावत् पदार्थोंको उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप परिणामी और अनन्तधर्मात्मक बताकर उन्होंने शिष्योंकी न केवल बाह्य परिग्रहकी ही गाँठ खोली, किन्तु अन्तरंग हृदयग्रन्थिको भी खोलकर उन्हें अन्तर बाह्य सर्वथा निर्ग्रन्थ बनाया था । विचारको चरम रेखा : यह अनेकान्तदर्शन वस्तुतः विचारविकासकी चरम रेखा है । चरम रेखासे मेरा तात्पर्य यह है कि दो विरुद्ध बातोंमें शुष्क तर्कजन्य कल्पनाओंका विस्तार तब तक बराबर होता जायगा, जब तक कि उनका कोई वस्तुस्पर्शी समाधान न निकल आवे । अनेकान्तदृष्टि वस्तुके उसी स्वरूपका दर्शन कराती है, जहाँ विचार समाप्त हो जाते हैं । जब तक वस्तुस्थिति स्पष्ट नहीं होती, तभी तक विवाद चलते हैं । अग्नि ठंडी है या गरम, इस विवाद की समाप्ति अग्निको हाथसे छू लेने पर जैसे हो जाती है, उसी तरह एक-एक दृष्टिकोणसे चलनेवाले विवाद अनेकान्तात्मक वस्तुदर्शनके बाद अपने आप समाप्त हो जाते हैं । स्वतः सिद्ध न्यायाधीश : सकते हैं । हम अनेकान्तदर्शनको न्यायाधीशके पदपर अनायास ही बैठा प्रत्येक पक्षके वकीलों द्वारा अपने पक्षके समर्थन के लिए संकलित दलीलोंकी फाइलकी तरह न्यायाधीशका फैसला भले ही आकारमें बड़ा न हो, पर उसमें वस्तुस्पर्श, व्यावहारिकता, सूक्ष्मता और निष्पक्षपातिता अवश्य होती है । उसी तरह एकान्तके समर्थनमें प्रयुक्त दलीलोंके भंडार - भूत एकान्तवादी दर्शनोंकी तरह जैनदर्शन में विकल्प या कल्पनाओंका चरम विकास न हो, पर उसकी वस्तुस्पर्शिता, व्यावहारिकता, समतावृत्ति एवं अहिंसाधारिता में तो संदेह किया ही नहीं जा सकता । यही कारण है कि जैनाचार्योंने वस्तुस्थितिके आधारसे प्रत्येक दर्शनके दृष्टिकोण समन्वयकी पवित्र चेष्टा की है और हर दर्शनके साथ न्याय किया है । यह वृत्ति अहिंसाहृदय के सुसंस्कृत मस्तिष्ककी उपज है । यह अहिंसास्वरूपा अनेकान्तदृष्टि ही जैनदर्शनके भव्य प्रासादका मध्य स्तम्भ है । इसीसे जैनदर्शन की प्राणप्रतिष्ठा है । भारतीय दर्शन सचमुच इस अतुल सत्यको पाये बिना अपूर्ण रहता । जैनदर्शनने इस अनेकान्तदृष्टि के आधारसे बनी हुई महत्त्वपूर्ण ग्रन्थराशि देकर भारतीय दर्शनशास्त्र के कोषागार में अपनी ठोस और पर्याप्त पूँजी जमा की “सदेव सौम्येदमग्र आसीत् एकमेवाद्वितीयम् । तक आहुरसदेवेदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम् । · Jain Educationa International तस्मादसतः सज्जायत।" - छान्दो० ६ २ | For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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