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________________ भारतीय दर्शनको जैनदर्शनकी देन सहानुभूतिसे समीक्षा होनी चाहिए, और उसका वस्तुस्थितिमूलक समीकरण होना चाहिए । इस स्वीयस्वल्पता और वस्तुकी अनन्तधर्मात्मकताके वातावरणसे निरर्थक कल्पनाओंका जाल टूटेगा और अहंकारका विनाश होकर मानस समताकी सृष्टि होगी, जो कि अहिंसाकी संजीवनी वेल है । मानस समता के लिए 'अनेकान्त - दर्शन' ही एकमात्र स्थिर आधार हो सकता है । इस प्रकार जब 'अनेकान्तदर्शन' से विचारशुद्धि हो जाती है, तब स्वभावतः वाणी में नम्रता और परसमन्वयकी वृत्ति उत्पन्न होती है । वह वस्तुस्थितिका उल्लंघन करनेवाले किसी भी शब्दका प्रयोग ही नहीं कर सकता । इसीलिए जैनाचार्योंने वस्तुकी अनेकधर्मात्मकताका द्योतन करनेके लिए 'स्यात्' शब्दके प्रयोगकी आवश्यकता बताई है । शब्दों में यह सामर्थ्य नहीं है कि वह वस्तुके पूर्णरूपको युगपत् कह सके । वह एक समय में एक ही धर्मको कह सकता है । अतः उसी समय वस्तुमें विद्यमान शेष धर्मोका सूचन करनेके लिए 'स्यात्' शब्द प्रयुक्त होता है । इस 'स्यात्' का अर्थ सुनिश्चित दृष्टिकोण या निर्णीत अपेक्षा है; न कि शायद, सम्भव या कदाचित् आदि । 'स्यादस्ति' का वाच्यार्थ है - स्वरूपादिकी अपेक्षा वस्तु है ही, न कि शायद है, सम्भव है, कदाचित् है, आदि । संक्षेपतः जहाँ अनेकान्तदर्शन चित्त में माध्यस्थभाव, वीतरागता और निष्पक्षताका उदय करता है वहाँ स्याद्वाद वाणी में निर्दोषता आनेका पूरा-पूरा अवसर देता है । स्याद्वाद एक निर्दोष भाषा-शैली : इस प्रकार अहिंसाकी परिपूर्णता और स्थायित्व की प्रेरणाने मानस-शुद्धिके लिए 'अनेकान्तदर्शन' और वचनशुद्धिके लिए 'स्याद्वाद' जैसी निधियोंको भारतीय दर्शन कोषागार में दिया है । बोलते समय वक्ताको सदा यह ध्यान रखना चाहिये कि वह जो बोल रहा है, उतनी ही वस्तु नहीं है । शब्द उसके पूर्णरूप तक पहुँच नहीं सकते । इसी भावको जतानेके लिए वक्ता 'स्यात्' शब्दका प्रयोग करता है । 'स्यात् ' शब्द विधिलिंग में भी है । पर यहाँ वह निपात-अव्यय में निष्पन्न होता है | वह अपने वक्तव्यको निश्चित रूपमें उपस्थित करता है; न कि संशयरूपमें 1 जैन तीर्थङ्करोंने इस प्रकार सर्वांगीण अहिंसाकी साधनाका वैयक्तिक और सामाजिक दोनों प्रकारका प्रत्यक्षानुभूत मार्ग बताया। उनने पदार्थों के स्वरूपका यथार्थ निरूपण तो किया ही, साथ ही पदार्थोंके देखनेका, उनके ज्ञान करनेका और उनके स्वरूपको वचनसे कहनेका रास्ता भी दिखाया । इस अहिंसक दृष्टिसे यदि भारतीय दर्शनकारोंने वस्तुका निरीक्षण किया होता, तो भारतीय जल्पकथाका इतिहास इतना रक्तरंजित न हुआ होता; और धर्म तथा दर्शनके नामपर मानवताका निर्दलन नहीं Jain Educationa International ४१ For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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