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जैनदर्शन
कितने पानी में है, उसका ज्ञान कितना स्वल्प है और वह किस तरह दुरभिमानसे हिंसक मतवादका सृजन करके मानव समाजका अहित कर रहा है । इस मानस अहिंसात्मक अनेकान्तदर्शनसे विचारों या दृष्टिकोणों में कामचलाऊ समन्वय या ढीला-ढाला समझौता नहीं होता, किन्तु वस्तुस्वरूपके आधारसे यथार्थ तत्त्वज्ञानमूलक समन्वयदृष्टि प्राप्त होती है । अनेकान्तदृष्टिका वास्तविक क्षेत्र :
इस तरह अनेकान्तदर्शन वस्तुकी अनन्तधर्मात्मकता मानकर केवल कल्पनाकी उड़ानको और उससे फलित होनेवाले कल्पित धर्मोंको वस्तुगत माननेकी हिमाकत नहीं करता । वह कभी भी वस्तुको सीमाको नहीं लांघना चाहता । वस्तु तो अपने स्थानपर विराट् रूपमें प्रतिष्ठित है । हमें परस्पर विरोधी मालूम होनेवाले भी अनन्तधर्म उसमें अविरुद्ध भावसे विद्यमान हैं। अपनी संकुचित विरोधयुक्त दृष्टि के कारण हम उसकी यथार्थ स्थितिको नहीं समझ पा रहे हैं । जैनदर्शन वास्तव बहुत्ववादी है । वह दो पृथक्सत्ताक वस्तुओंको व्यवहार के लिए कल्पनासे एक कह भी दे, पर वस्तुकी निजी मर्यादाको नहीं लांघना चाहता । एक वस्तुका अपने गुण-पर्यायोंसे वास्तविक अभेद तो हो सकता है, पर दो व्यक्तियोंमें वास्तविक अभेद सम्भव नहीं है । इसकी यह विशेषता है, जो यह परमार्थसत् वस्तुकी परिधिको न लाँघकर उसकी सीमामें ही विचरण करता है, और मनुष्योंको कल्पनाकी उड़ानसे विरलकर वस्तुकी ओर देखने को बाध्य करता है । यद्यपि जैनदर्शन में ' संग्रहनय' की एक दृष्टिसे चरम अभेदकी भी कल्पना की जाती है और कहा जाता है कि "सर्वमेकं सदविशेषात् " [ तत्त्वार्थभा० १1३५ ] अर्थात् जगत् एक है, सद्रूपसे चेतन और अचेतनमें कोई भेद नहीं है । किन्तु यह एक कल्पना है । कोई एक ऐसा वास्तविक सत् नहीं है, जो प्रत्येक मौलिक द्रव्यमें अनुगत रहता हो । अतः जैनदर्शन वस्तुस्थिति के बाहरकी कल्पनाकी उड़ानको जिस प्रकार असत् कहता है, उसी तरह वस्तुके एक धर्मके दर्शनमें ही वस्तु के सम्पूर्णरूप अभिमानको भी विघातक मानता है । इन ज्ञानलवधारियोंको उदारदृष्टि देनेवाले तथा वस्तुकी यथार्थ झाँकी दिखानेवाले अनेकान्तदर्शनने वास्तविक विचारकी अन्तिम रेखा खींची है और यह सब हुआ है, मानस समता - मूलक तत्त्वज्ञानकी खोजसे ।
मानस समताका प्रतीक :
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इस तरह जब वस्तुस्थिति ही अनेकान्तमयी या अनन्तधर्मात्मिका है, तब मनुष्य सहज ही यह सोचने लगता है कि दूसरा वादी जो कह रहा है, उसकी
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