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________________ भारतीय दर्शनको जैनदर्शनकी देन जाय या उनकी सन्तति सर्वथा उच्छिन्न हो जाय । साथ ही उसकी पर्यायें प्रतिक्षण बदल रही हैं। उसके गुणधर्मों में भी सदृश या विसदृश परिवर्तन हो रहा है। अतः वह अनित्य भी है। इसी तरह अनन्त गुण, शक्ति, पर्याय और धर्म प्रत्येक वस्तुको निजी सम्पत्ति हैं। हमारा स्वल्प ज्ञानलव इनमेंसे एक-एक अंशको विषय करके क्षुद्र मतवादोंकी सृष्टि कर रहा है। आत्माको नित्य सिद्ध करनेवालोंका पक्ष अपनी सारी शक्ति अनित्यवादियोंकी उखाड़-पछाड़ में लगा रहा है तो अनित्यवादियोंका गुट नित्यपक्षवालोंको भला-बुरा कह रहा है। भ० महावीरको इन मतवादियोंकी बुद्धि और प्रवृत्तिपर तरस आता था। वे बुद्धकी तरह आत्माके नित्यत्व और अनित्यत्व, परलोक और निर्वाण आदिको अव्याकृत कहकर बौद्धिक नैराश्यकी सृष्टि नहीं करना चाहते थे। उनने उन सभी तत्त्वोंका यथार्थ स्वरूप बताकर शिष्योंको प्रकाशमें ला, उन्हें मानस-समताकी भूमिपर खड़ा कर दिया। उनने बताया कि वस्तुको तुम जिस दृष्टिकोणसे देख रहे हो, वस्तु उतनी ही नहीं है। उसमें ऐसे अनन्त दृष्टिकोणोंसे देखे जाने की क्षमता है। उसका विराट स्वरूप अनन्तधर्मात्मक है। तुम्हें जो दृष्टिकोण विरोधी मालूम होता है, उसका ईमानदारीसे विचार करो, तो उसका विषयभूत धर्म भी वस्तुमें विद्यमान है । चित्तसे पक्षपातकी दुरभिसंधि निकालो और दूसरेके दृष्टिकोणके विषयको भी सहिष्णुतापूर्वक खोजो, वह भी वहीं लहरा रहा है। हाँ, वस्तुकी सीमा और मर्यादाका उल्लंघन नहीं होना चाहिए। तुम चाहो कि जड़में चेतनत्व खोजा जाय या चेतनमें जड़त्व, तो वह नहीं मिल सकता; क्योंकि प्रत्येक पदार्थके अपने-अपने निजी धर्म सुनिश्चित हैं । •वस्तु सर्वधर्मात्मक नहीं: वस्तु अनन्तधर्मात्मक है न कि सर्वधर्मात्मक । अनन्तधर्मोंमें चेतनके सम्भव अनन्तधर्म चेतनमें मिलेंगे और अचेतनगत अनन्तधर्म अचेतनमें । चेतनके गुणधर्म अचेतनमें नहीं पाये जा सकते और न अचेतनके चेतनमें । हाँ, कुछ ऐसे सादृश्यमूलक वस्तुत्व आदि सामान्यधर्म भी हैं जो चेतन और अचेतन सभी द्रव्योंमें पाये जा सकते हैं, परन्तु सबकी सत्ता जुदी-जुदी है। तात्पर्य यह कि वस्तु बहुत बड़ी है। वह इतनी विराट है कि हमारे-तुम्हारे अनन्तदृष्टिकोणोंसे देखी और जानी जा सकती है। एक क्षुद्र दृष्टिका आग्रह करके दूसरेको दृष्टिका तिरस्कार करना या अपनी दृष्टिका अहंकार करना वस्तु-स्वरूपकी नासमझीका परिणाम है। इस तरह मानस समताके लिए इस प्रकारका वस्तुस्थितिमूलक अनेकान्त-तत्त्वज्ञान अत्यावश्यक है। इसके द्वारा इस मनुष्यतनधारीको ज्ञात हो सकेगा कि वह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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