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जैनदर्शन नामपर गोरी जातियाँ यह फतवा दे रही हों कि-ईश्वरने उन्हें शासक होनेके लिए तथा अन्य काली-पीली जातियोंको सभ्य बनानेके लिए पृथ्वीपर भेजा है। अतः गोरी जातिको शासन करनेका जन्मसिद्ध अधिकार है, और काली-पीली जातियोंको उनका गुलाम रहना चाहिये। इस प्रकारकी वर्गस्वार्थकी घोषणाएँ जब ईश्वरवादके आवरणमें प्रचारित की जाती हों, तब परस्पर अहिंसा और मैत्रीका तात्त्विक मूल्य क्या हो सकता है ? अतः इस प्रकारके अवास्तविक कुसंस्कारोंसे मुक्ति पानेके लिए यह शशकवृत्ति कि 'हमें क्या करना है ? कोई कैसे ही विचार रखें' आत्मघातिनी ही सिद्ध होगी। हमें ईश्वरके नामपर चलनेवाले वर्गस्वार्थियोंके उन नारोंकी परीक्षा करनी ही होगी तथा स्वयं ईश्वरकी भी, कि क्या इस अनन्त विश्वका नियन्त्रक कोई करुणामय महाप्रभु ही है ? और यदि है, तो क्या उसकी करुणाका यही रूप है ? हर हालतमें हमें अपना स्पष्ट दर्शन व्यक्तिकी मुक्ति और विश्वको शान्ति के लिए बनाना ही होगा। इसीलिए महावीर और बुद्ध जैसे क्रान्तदर्शी क्षत्रियकुमारोंने अपनी वंश-परम्परासे प्राप्त उस पापमय राज्यविभूतिको लात मारकर प्राणिमात्रकी महामैत्रीकी साधनाके लिये जंगलका रास्ता लिया था। समस्याओंके मूलकारणोंकी खोज किये बिना ऊपरी मलहमपट्टी तात्कालिक शान्ति भले ही दे दे, किन्तु यह शान्ति आगे आनेवाले विस्फोटक तूफानका प्राग्रूप ही सिद्ध हो सकती है।
__ जगत्की जीती-जागती समस्याओंका समाधान यह मौलिक अपेक्षा रखता है कि विश्वके चर-अचर पदार्थोंके स्वरूप, अधिकार और परस्पर सम्बन्धोंकी तथ्य और सत्य व्याख्या हो। संस्कृतियोंके इतिहासकी निष्पक्ष मीमांसा हमें इस नतीजे पर पहुँचाती है कि विभिन्न संस्कृतियोंके उत्थान और पतनकी कहानी अपने पीछे वर्गस्वार्थियोंके झूठे और खोखले तत्त्वज्ञानके भीषण षड्यन्त्रको छुपाये हए है। पश्चिमका इतिहास एक ही ईसाके पुत्रोंकी मारकाटकी काली किताब है। भारतवर्षमें कोटि-कोटि मानवोंको वंशानुगत दासता और पशुओंसे भी बदतर जीवन बितानेके लिए बाध्य किया जाना भी, आखिर उसी दयालु ईश्वरके नामपर ही तो हुआ । अतः प्राणिमात्रके उद्धारके लिए कृतसंकल्प इन श्रमणसन्तोंने जहाँ चारित्रको मोक्षका अन्तिम और साक्षात् कारण माना वहाँ संघरचना, विश्वशान्ति और समाज-व्यवस्थाके लिए, उस अहिंसाके आधारभूत तत्त्वज्ञानको खोजनेका भी गम्भीर और तलस्पर्शी प्रयत्न किया। उन्होंने वर्गस्वार्थके पोषणके लिये चारों तरफसे सिमटकर एक कठोर शिकंजेमें ढलनेवाली कुत्सित विचारधाराको रोककर कहा-ठहरो, जरा इस कल्पित शिकंजेके साँचेसे निकलकर स्वतंत्र विचरो, और देखो कि जगत्का हित किसमें है ? क्या जगत्का स्वरूप यही है ? क्या जीवनका
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