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________________ ३५ विषय प्रवेश किया । इनका साध्य विचार नहीं, आचार था; ज्ञान नहीं, चारित्र था; वाग्विलास या शास्त्रार्थ नहीं, जीवन-शुद्धि और संवाद था। अहिंसाका अन्तिम अर्थ हैजीवमात्रमें, चाहे वह स्थावर हो या जंगम, पशु हो या मनुष्य, ब्राह्मण हो या शूद्र, गोरा हो या काला, एतत् देशीय हो या विदेशी, इन देश, काल और शरीराकारके आवरणोंसे परे होकर समत्व दर्शन करना। प्रत्येक जीव स्वरूपसे चैतन्य-शक्तिका अखण्ड शाश्वत आधार है। वह कर्मवासनाके कारण भले ही वृक्ष, कीड़ा, मकोड़ा, पशु या मनुष्य, किसीके भी शरीरोंको क्यों न धारण करे, पर उसके चैतन्य-स्वरूपका एक भी अंश नष्ट नहीं होता, कर्मवासनाओंसे विकृत भले ही हो जाय । इसी तरह मनुष्य अपने देश-काल आदि निमित्तोंसे गोरे या काले किसी भी शरीरको धारण किये हो, अपनी वृत्ति या कर्मके अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र किसी भी श्रेणीमें उसकी गणना व्यवहारतः की जाती हो, किसी भी देशमें उत्पन्न हुआ हो, किसी भी संतका उपासक हो, वह उन व्यावहारिक निमित्तोंसे निसर्गतः ऊँच या नीच नहीं हो सकता । मानवमात्रकी मूलतः समान स्थिति है । आत्मसमत्व, वीतरागत्व या अहिंसाके विकाससे ही कोई महान् हो सकता है; न कि जगत्में भयंकर विषमताका सर्जन करनेवाले हिंसा और संघर्षके मूल कारण परिग्रहके संग्रहसे । युग-दर्शन ? ____ यद्यपि यह कहा जा सकता है कि अहिंसा या दयाकी साधनाके लिए तत्त्वज्ञानकी क्या आवश्यकता है ? मनुष्य किसी भी विचारका क्यों न हो, परस्पर सद्व्यवहार, सद्भावना और मैत्री उसे समाज-व्यवस्थाके लिए करनी चाहिए। परन्तु जरा गहराईसे विचार करनेपर यह अनिवार्य एवं आवश्यक हो जाता है कि हम विश्व और विश्वान्तर्गत प्राणियोंके स्वरूप और उनकी अधिकार-स्थितिका तात्त्विक दर्शन करें। बिना इस तत्त्वदर्शनके हमारी मैत्री कामचलाऊ और केवल तत्कालीन स्वार्थको साधनेवाली साबित हो सकती है। ___ लोग यह सस्ता तर्क करते हैं कि-'कोई ईश्वरको मानो या न मानो, इससे क्या बनता बिगड़ता है ? हमें परस्पर प्रेमसे रहना चाहिये।' लेकिन भाई, जब एक वर्ग उस ईश्वरके नामसे यह प्रचार' करता हो कि ईश्वरने मुखसे ब्राह्मणको, बाहसे क्षत्रियको, उदरसे वैश्यको और पैरोंसे शूद्रको उत्पन्न किया है और उन्हें भिन्न-भिन्न अधिकार और संरक्षण देकर इस जगत्में भेजा है । दूसरी ओर ईश्वरके ."ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः । करू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रोऽजायत ॥"-ऋग्वेद १०।१०।१२ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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