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________________ जैनदर्शन भारतीय धर्मोका अपना दर्शन अवश्य रहा है और उसी सुनिश्चित तत्त्वज्ञानकी धारापर उन-उन धर्मोंकी अपनी-अपनी आचार पद्धति बनी है । दर्शनके बिना धर्म एक सामान्य नैतिक नियमोंके सिवा कोई विशेष महत्त्व नहीं रखता और धर्मके बिना दर्शन भी कोरा वाग्जाल ही साबित होता है। इस तरह सामान्यतया भारतीय धर्मोंको अपने-अपने तत्त्वज्ञानके प्रचार और प्रसारके लिए अपना-अपना दर्शन नितान्त अपेक्षणीय रहा है । 'जैनदर्शन' का विकास मात्र तत्त्वज्ञानकी भूमिपर न होकर आचारकी भूमिपर हुआ है । जीवन-शोधनकी व्यक्तिगत मुक्ति प्रक्रिया और समाज तथा विश्वमें शान्ति स्थापनकी लोकैषणाका मूलमंत्र 'अहिंसा' ही है । अहिंसाका निरपवाद और निरुपाधि प्रचार समस्त प्राणियोंके जीवनको आत्मसम समझे बिना हो नहीं सकता था । "जह मम ण पियं दुखं जाणिहि एमेव सव्वजीवाणं" [आचारांग ] यानी जैसे मुझे दुःख अच्छा नहीं लगता उसी तरह संसारके समस्त प्राणियों को समझो | यह करुणापूर्ण वाणी अहिंसक मस्तिष्कसे नहीं, हृदयसे निकलती है | श्रमणधाराका सारा तत्त्वज्ञान या दर्शनविस्तार जीवनशोधन और चारित्रवृद्धिके लिए हुआ है । हम पहले बता आये हैं कि वैदिकपरम्परामें तत्त्वज्ञानको मुक्तिका साधन माना है, जब कि श्रमणधारामें चारित्रको । वैदिकपरम्परा वैराग्य आदिसे ज्ञानको पुष्ट करती है, और विचारशुद्धि करके मोक्ष मान लेती है, जब कि श्रमणपरम्परा कहती है, उस ज्ञान या विचारका कोई विशेष मूल्य नहीं जो जीवनमें न उतरे, जिसकी सुवाससे जीवन सुवासित न हो। कोरा ज्ञान या विचार दिमागी कसरतसे अधिक कुछ भी महत्त्व नहीं रखता। जैनपरम्परा में तत्त्वार्थ सूत्रका आदि सूत्र है"सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ॥ - तत्त्वार्थसूत्र ११ । ३४ इसमें मोक्षका साक्षात् कारण चारित्र है, और सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान उस चारित्रके परिपोषक । बौद्धपरम्पराका अष्टांग मार्ग भी चारित्रका ही विस्तार है । तात्पर्य यह कि श्रमणधारा में ज्ञानकी अपेक्षा चारित्रका ही अन्तिम महत्त्व रहा है, और प्रत्येक विचार या ज्ञानका उपयोग चारित्र अर्थात् आत्मशोधन या जीवनमें सामञ्जस्य स्थापित करनेके लिए किया गया है । श्रमण-सन्तोंने तप और साधना के द्वारा वीतरागता प्राप्त की थी और उसी परम वीतरागता, समता या अहिंसाकी पूत ज्योतिको विश्व में प्रसारित करनेके लिए समस्त तत्त्वोंका साक्षात्कार १. सम्यक्दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक्वचन, सम्यक्कर्मान्त, सम्यक् आजीव, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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