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________________ विषय प्रवेश ३३ I कोई अन्य महान् उद्देश्य अवशिष्ट नहीं रह जाता । भारतवर्षकी भौगोलिक परिस्थिति के कारण यहाँकी प्रकृति धन-धान्य आदिसे पूर्ण समृद्ध रही है, और सादा जीवन, त्याग और आध्यात्मिकताकी सुगन्ध यहाँके जनजीवनमें व्याप्त रही है । इसीलिए यहाँ प्रागैतिहासिक कालसे ही "मैं और विश्व" के सम्बन्ध में अनेक प्रकारसे चिन्तन चालू रहे हैं, और आज तक उनकी धाराएँ अविच्छिन्न रूपसे प्रवाहित हैं । पाश्चात्य दर्शनोंका उद्गम विक्रम पूर्व सातवीं शताब्दी के आसपास प्राचीन यूनानमें हुआ था । इसी समय भारतवर्ष में उपनिषत्का तत्त्वज्ञान तथा श्रमण परम्पराका आत्मज्ञान विकसित था । महावीर और बुद्धके समय यहाँ मक्खलिगोशाल, प्रक्रुध कात्यायन, पूर्ण कश्यप, अजित केशकम्बलि और संजय वेलट्ठिपुत्त जैसे अनेक तपस्वी अपनी-अपनी विचारधाराका प्रचार करनेवाले मौजूद थे । यहाँके दर्शनकार प्रायः त्यागी, तपस्वी और ऋषि ही रहे हैं । यही कारण था कि जनताने उनके उपदेशों को ध्यानसे सुना । साधारणतया उस समयकी जनता कुछ चमत्कारोंसे भी प्रभावित होती थी, और जिस तपस्वीने थोड़ा भी भूत और भविष्य की बातोंका पता बताया वह तो यहाँ ईश्वरके अवतारके रूप में भी पुजा । भारतवर्ष सदासे विचार और आचारकी उर्वरा भूमि रहा है । यहाँकी विचार - दिशा भी आध्यात्मिकताकी ओर रही है । ब्रह्मज्ञानकी प्राप्तिके लिए यहाँके साधक अपना घर-द्वार छोड़कर अनेक प्रकारके कष्ट सहते हुए, कृच्छ्र साधनाएँ करते रहे हैं । ज्ञानीका सन्मान करना यहाँकी प्रकृतिमें है । दो विचार-धाराएँ : इस तरह एक धारा तत्त्वज्ञान और विचारको मोक्षका साक्षात् कारण मानती श्री और वैराग्य आदिको उस तत्त्वज्ञानका पोषक | बिना विषयनिवृत्तिरूप वैराग्य यथार्थ ज्ञानकी प्राप्ति दुर्लभ है और ज्ञान प्राप्त हो जानेपर उसी ज्ञानाग्निसे समस्त कर्मों का क्षय हो जाता है । श्रमणधाराका साध्य तत्त्वज्ञान नहीं, चारित्र था । इस धारामें वह तत्त्वज्ञान किसी कामका नहीं, जो अपने जीवनमें अनासक्तिकी सृष्टि न करे । इसीलिए इस परम्परामें मोक्षका साक्षात् कारण तत्त्वज्ञानसे परिपुष्ट चारित्र बताया गया है । निष्कर्ष यह है कि चाहे वैराग्य आदिके द्वारा पुष्ट तत्त्वज्ञान या तत्त्वज्ञानसे समृद्ध चारित्र दोनों ही पक्ष तत्त्वज्ञानकी अनिवार्य आवश्यकता समझते ही थे । कोई भी धर्म तबतक जनतामें स्थायी आधार नहीं पा सकता था जबतक कि उसका अपना तत्त्वज्ञान न हो । पश्चिममें ईसाई धर्मका प्रभु ईशुके नामसे इतना व्यापक प्रचार होते हुए भी तत्त्वज्ञानके अभाव में वह वहाँके वैज्ञानिकों और प्रबुद्ध प्रजाकी जिज्ञासाको परितुष्ट नहीं कर सका । ३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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