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जैनदर्शन
विवाद नहीं है। अतः मोक्ष, मोक्षके कारण, दुःख और दुःखके कारणोंकी खोज करना भारतीय दर्शनकार ऋषिको अत्यावश्यक था। चिकित्साशास्त्रकी प्रवृत्ति रोग, निदान, आरोग्य और ओषधि इस चतुर्दूहको लेकर ही हुई है। बुद्धके' तत्त्वज्ञानके आधार तो 'दुःख, समुदय, निरोध और मार्ग' ये चार आर्यसत्य ही हैं। जैन तत्त्वज्ञानमें मुमुक्षुको अवश्य-ज्ञातव्य जो सात तत्त्व गिनाये हैं २, उनमें बन्ध, बन्धके कारण ( आस्रव ), मोक्ष और मोक्षके कारण ( संवर और निर्जरा ) इन्हींका प्रमुखतासे विस्तार किया गया है। जीव और अजीवका ज्ञान तो आस्रवादिके आधार जाननेके लिए है। तात्पर्य यह है कि समस्त भारतीय चिन्तनकी दिशा दुःखनिवृत्तिके उपाय खोजनेको ओर रही है और न्यूनाधिकरूपसे सभी चिन्तकोंने इसमें अपने-अपने ढंगसे सफलता भी पाई है। ___ तत्त्वज्ञान जब मुक्तिके साधनके रूपमें प्रतिष्ठित हुआ और "ऋते ज्ञानात् न मक्तिः" जैसे जीवनसूत्रोंका प्रचार हुआ तब तत्त्वज्ञानकी प्राप्तिका उपाय तथा तत्त्वके स्वरूपके सम्बन्धमें भी अनेक प्रकारकी जिज्ञासाएँ और मीमांसाएँ चलों। वैशेषिकोंने ज्ञेयका षट् पदार्थके रूपमें विभाजन कर उनका तत्त्वज्ञान उपासनीय बताया तो नैयायिकोंने प्रमाण, प्रमेय आदि सोलह पदार्थोके तत्त्वज्ञान पर जोर दिया। सांख्योंने प्रकृति और पुरुषके तत्त्वज्ञानसे मुक्ति बताई, तो बौद्धोंने मुक्तिके लिए नैरात्म्यज्ञान आवश्यक समझा। वेदान्तमें ब्रह्मज्ञानसे मुक्ति होती है, तो जैनदर्शनमें सात तत्त्वोंका सम्यग्ज्ञान मोक्षकी कारणसामग्रीमें गिनाया गया है।
पश्चिमी दर्शनोंका उद्गम केवल कौतुक और आश्चर्यसे होता है, और उसका फैलाव दिमागी व्यायाम और बुद्धिरंजन तक ही सीमित है। कौतुककी शान्ति होनेके बाद या उसकी अपने ढंगकी व्याख्या कर लेने के बाद पाश्चात्य दर्शनोंका
१. "सत्यान्युक्तानि चत्वारि दुःखं समुदयस्तथा।
निरोधो मार्ग रतेषां यथाभिसमयं क्रमः"-अभिधर्मको० ६।२ ।-धर्मसं० ६०५ । २. “जीवाजीवात्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ।"-तत्त्वार्थसूत्र १।४ । ३. “धर्मविशेष प्रसूतात् द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायानां पदार्थानां साधर्म्यवैधाभ्यां
तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसम् ।"-वैशे० सू० १।१।४।। ४. "प्रमाण-प्रमेय-संशय-प्रयोजन-दृष्टान्त-सिद्धान्त-अवयव-तर्क-निर्णय-वाद-जल्प-वितण्डा-हे त्वाभास-छल-जाति-निग्रहस्थानानां तत्वज्ञानान्निःश्रेयसाधिगतिः ।"
-न्यायसूत्र १।१।१। ५. सांख्यका० ६४ । ६. “हेतुविरोधिनैरात्म्यदर्शनं तस्य बाधकम् ।”—प्रमाणवा० १११३८ ।
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