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२. विषय प्रवेश
दर्शनकी उद्भूति:
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भारत धर्मप्रधान देश है इसने सदासे 'मैं' और 'विश्व' तथा उनके परस्पर सम्बन्धको लेकर चिन्तन और मनन किया है । द्रष्टा ऋषियोंने ऐहिक चिन्तासे मुक्त हो उस आत्मतत्त्वके गवेषणमें अपनी शक्ति लगाई है जिसकी धुरीपर यह संसारचक्र घूमता है । मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । वह अकेला नहीं रह सकता । उसे अपने आसपासके प्राणियोंसे सम्बन्ध स्थापित करना ही पड़ता है । आत्मसाधना के लिए भी चारों ओरके वातावरणकी शान्ति अपेक्षित होती है । व्यक्ति चाहता है कि मैं स्वयं निराकुल कैसे होऊँ ? राग-द्वेष आदि द्वन्द्वोंसे परे होकर निर्द्वन्द्व दशामें किस प्रकार पहुँचें ? और समाज तथा विश्व में सुख-शान्तिका राज कैसे हो ? इन्हीं दो चिन्ताओंमेंसे समाज रचनाके अनेक प्रयोग निष्पन्न हुए तथा होते जा रहे हैं । व्यक्तिकी निराकुल होनेकी प्रबल इच्छाने यह सोचनेको बाध्य किया कि आखिर 'व्यक्ति' है क्या ? यह जन्म से मरण तक चलनेवाला भौतिक पिण्ड ही है या मृत्युके बाद भी इसका स्वतन्त्र रूपसे अस्तित्व रह जाता है ? उपनिषद् के ऋषियों को जब आत्मतत्त्व के विवाद के बाद सोना, गायें और दासियोंका परिग्रह करते हुए देखते हैं तब ऐसा लगता है कि यह आत्म-चर्चा क्या केवल लौकिक प्रतिष्ठाका साधनमात्र ही है ? क्या इसीलिये बुद्धने आत्माके पुनर्जन्मको 'अव्याकरणीय' बताया ? ये सब ऐसे प्रश्न हैं जिनने 'आत्मजिज्ञासा' उत्पन्न क़ी और जीवन-संघर्षने सामाजिक - रचना के आधारभूत तत्त्वोंकी खोजकी ओर प्रवृत्त किया । पुनर्जन्मको अनेक घटनाओंने कौतूहल उत्पन्न किये । अन्ततः भारतीय, दर्शन आत्मतत्त्व, पुनर्जन्म और उसकी प्रक्रियाके विवेचनमें प्रवृत्त हुए । बौद्धदर्शन में आत्माकी अभौतिकताका समर्थन तथा शास्त्रार्थ पीछे आये अवश्य, पर मूलमें बुद्धने इसके स्वरूपके सम्बन्धमें मौन ही रखा। इसका विवेचन उनने दो 'न' के सहारे किया और कहा कि आत्मा न तो भौतिक है और न शाश्वत ही है । न वह भूतपिण्डकी तरह उच्छिन्न होता है और न उपनिषद्वादियोंके अनुसार शाश्वत होकर सदा काल एक रहता है। फिर है क्या ? इसको उनने अनुपयोगी ( इसका जानना न निर्वाणके लिए आवश्यक है और न ब्रह्मचर्यके लिए ही ) कहकर टाल दिया । अन्य भारतीय दर्शन 'आत्मा' के स्वरूपके सम्बन्धमें चुप नहीं रहे, किन्तु उन्होंने अपने-अपने ग्रंथोंमें इतर मतका निरास करके पर्याप्त
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