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________________ विषय प्रवेश ऊहापोह किया है। उनके लिए यह मूलभूत समस्या थी, जिसके ऊपर भारतीय चिन्तन और साधनाका महाप्रासाद खड़ा होता है। इस तरह संक्षेपमें देखा जाय तो भारतीय दर्शनोंकी चिन्तन और मननकी धुरी 'आत्मा और विश्वका स्वरूप' ही रही है । इसीका श्रवण, दर्शन, मनन, चिन्तन और निदिध्यासन जीवनके अन्तिम लक्ष्य थे। दर्शन शब्द का अर्थ : साधारणतया दर्शनका मोटा और स्पष्ट अर्थ है साक्षात्कार करना, प्रत्यक्षज्ञानसे किसी वस्तुका निर्णय करना । यदि दर्शनका यही अर्थ है तो दर्शनोंमें तीन और छहकी तरह परस्पर विरोध क्यों है ? प्रत्यक्ष दर्शनसे जिन पदार्थोका निश्चय किया जाता है उनमें विरोध, विवाद या मतभेदकी गुञ्जाइश नहीं रहती। आजका विज्ञान इसीलिए प्रायः निर्विवाद और सर्वमतिसे सत्यपर प्रतिष्ठित माना जाता है कि उसके प्रयोगांश केवल दिमागी न होकर प्रयोगशालाओंमें प्रत्यक्षज्ञान या तन्मूलक अव्यभिचारी कार्यकारणभावकी दृढ़ भित्तिपर आश्रित होते हैं । 'हाइड्रोजन और ऑक्सिजन मिलकर जल बनता है' इसमें मतभेद तभी तक चलता है जबतक प्रयोगशालामें दोनोंको मिलाकर जल नहीं बना दिया जाता। जब दर्शनोंमें पग-पग पर पूर्व पश्चिम जैसा विरोध विद्यमान है तब स्वभावतः जिज्ञासुको यह सन्देह होता है कि-दर्शन शब्दका सचमुच साक्षात्कार अर्थ है या नहीं ? या यदि यही अर्थ है तो वस्तुके पूर्ण रूप का वह दर्शन है या नहीं ? यदि वस्तुके पूर्ण स्वरूपका दर्शन भी हुआ हो तो उसके वर्णनकी प्रक्रियामें अन्तर है क्या ? दर्शनोंके परस्पर विरोधका कोई-न-कोई ऐसा ही हेतु होना चाहिये । पूर न जाइये, सर्वथा और सर्वतः सन्निकट और प्रतिश्वास अनुभवमें आनेवाले आत्माके स्वरूप पर ही दर्शनकारोंके साक्षात्कारपर विचार कीजिये । सांख्य आत्माको कूटस्थ नित्य मानते हैं। इनके मतमें आत्मा साक्षी चेता निर्गुण अनाद्यनन्त अविकारी और नित्य तत्त्व है। बौद्ध ठीक इसके विपरीत प्रतिक्षण परिवर्तनशील चित्तक्षणरूप ही आत्मा मानते हैं। नैयायिक-वैशेषिक परिवर्तन तो मानते है, पर वह परिवर्तन भिन्न गुण तथा क्रिया तक ही सीमित है, आत्मामें उसका असर नहीं होता। मीमांसकने अवस्थाभेदकृत परिवर्तन स्वीकार करके भी और उन अवस्थाओंका द्रव्यसे कथञ्चित् भेदाभेद मानकर भी द्रव्यको नित्य स्वीकार किया है । जैनोंने अवस्था-पर्यायभेदकृत परिवर्तनके मूल आधार द्रव्यमें परिवर्तन कालमें किसी स्थायी अंशको नहीं माना, किन्तु अविच्छिन्न पर्यायपरम्पराके अनाद्यनन्त चालू रहनेको ही द्रव्य माना है। यह पर्यायपरम्परा न कभी विच्छिन्न Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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