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जैनदर्शन
१४वीं सदीमें सोमतिलककी षड्दर्शनसमुच्चयटीका, १५वीं सदीमें गुणरत्नकी षड्दर्शनसमुच्चयबृहद्वृत्ति, राजशेखरकी स्याद्वादकलिका आदि, भावसेन विद्यदेवका विश्वतत्त्वप्रकाश आदि महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे गये। धर्मभूषणकी न्यायदीपिका भी इसी युगकी महत्त्वकी कृति है ।
४. नवीन न्याययुग विक्रमकी तेरहवीं सदीमें गंगेशोपाध्यायने नव्यन्यायकी नींव डाली और प्रमाण-प्रमेयको अवच्छेदकावच्छिन्नकी भाषामें जकड़ दिया। सत्रहवीं शताब्दीमें उपाध्याय यशोविजयजीने नव्यन्यायकी परिष्कृत शैलीमें खंडन-खंडखाद्य आदि अनेक ग्रन्थोंका निर्माण किया और उस युग तकके विचारोंका समन्वय तथा उन्हें नव्यढंगसे परिष्कृत करनेका आद्य और महान् प्रयत्न किया। विमलदासकी सप्तभंगितरंगिणी नव्य शैलीकी अकेली और अनूठी रचना है। अठारहवीं सदीमें यशस्वतसागरने सप्तपदार्थी आदि ग्रन्थोंकी रचना की। ..
अकलंकदेवके प्रतिष्ठापित प्रमाणशास्त्रपर अनेकों विद्वच्छिरोमणि आचार्योने ग्रन्थ लिखकर जैनदर्शनके विकासमें जो भगीरथ प्रयत्न किये हैं उनकी यह एक झलक मात्र है।
इसी तरह उपेयके उत्पादादित्रयात्मक स्वरूप तथा आत्माके स्वतन्त्र तथा अनेक द्रव्यत्वकी सिद्धि उक्त आचार्योंके ग्रन्थोंमें बराबर पाई जाती है।
उपसंहार मूलतः जैनधर्म आचारप्रधान है। इसमें तत्त्वज्ञानका उपयोग भी आचारशुद्धिके लिए ही है। यही कारण है कि तर्क जैसे शुष्क शास्त्रका उपयोग भी जैनाचार्योंने समन्वय और समताके स्थापनमें किया है । दार्शनिक कटाकटीके युगमें भी इस प्रकारको समता और उदारता तथा एकताके लिये प्रयोजक समन्वयदृष्टिका कायम रखना अहिंसाके पुजारियोंका ही कार्य था। स्याद्वादके स्वरूप तथा उसके प्रयोगकी विधियोंके विवेचनमें ही जैनाचार्योंने अनेक ग्रन्थ लिखे हैं। इस तरह दार्शनिक एकता स्थापित करनेमें जैनदर्शनका अकेला और स्थायी प्रयत्न रहा है । इस जैसी उदार सूक्तियाँ अन्यत्र कम मिलती हैं । यथा
"भवबीजाङ्करजनना रागाद्याःक्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुवा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ।।"-हेमचन्द्र । .
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