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सामान्यावलोकन तरह मानस अहिंसाकी उसी उदार दृष्टिका परिपोषण किया गया है। हरिभद्रके शास्त्रवार्तासमुच्चय, षड्दर्शनसमुच्चय और धर्मसंग्रहणी आदि इसके विशिष्ट उदाहरण हैं। यहाँ यह लिखना अप्रासंगिक नहीं होगा कि चार्वाक, नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य और मीमांसक आदि मतोंके खंडनमें धर्मकीर्तिने जो अथक श्रम किया है उससे इन आचार्योंका उक्त मतोंके खंडनका कार्य बहुत कुछ सरल बन गया था।
जब धर्मकीतिके शिष्य देवेन्द्र मति, प्रज्ञाकरगप्त, कर्णकगोमि, शांतरक्षित और अर्चट आदि अपने प्रमाणवातिकटीका, प्रमाणवातिकालंकार, प्रमाणवार्तिकस्ववृत्तिटीका, तत्त्वसंग्रह, वादन्यायटीका और हेतुबिन्दुटीका आदि ग्रन्थ रच चुके और इनमें कुमारिल, ईश्वरसेन और मंडनमिश्र आदिके मतोंका खंडन कर चुके तथा वाचस्पति, जयन्त आदि उस खंडनोद्धारके कार्यमें व्यस्त थे तब इसी युगमें अनन्तवीर्यने बौद्धदर्शनके खंडनमें सिद्धि निश्चयटीका बनाई। आचार्य सिद्धसेनके सन्मतिसूत्र और अकलंकदेवके सिद्धिविनिश्चयको जैनदर्शनप्रभावक ग्रन्थोंमें स्थान प्रात है । आ० विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, अष्टसहस्री, आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा और युक्त्यनुशासनटीका जैसे जैनन्यायके मूर्धन्य ग्रन्थोंको बनाकर अपना नाम सार्थक किया। इसी समय उदयनाचार्य, भट्ट श्रीधर आदि वैदिक दार्शनिकोंने वाचस्पति मिश्रके अवशिष्ट कार्यको पूरा किया। यह युग विक्रमकी ८वीं, ९वीं सदीका था। इसी समय आचार्य माणिक्यनंदिने परीक्षामुखसूत्रकी रचना की । यह जैन न्यायका आद्य सूत्रग्रन्थ है जो आगेके सूत्रग्रन्थोंके लिये आधारभूत आदर्श सिद्ध हुआ। - वि० को दसवीं सदी में आ० सिद्धर्षिसूरिने न्यायावतारपर टीका रची।
वि० ११-१२ वीं सदीको एक प्रकारसे जैनदर्शनका मध्याह्नोत्तर समझना चाहिए । इसमें वादिराजमूरिने न्यायविनिश्चयविवरण और प्रभाचन्द्र ने प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्र जैसे बृहत्काय टीकाग्रन्थोंका निर्माण किया । शान्तिसूरिका जैनतर्कवार्तिक, अभयदेवसूरिकी सन्मतितर्कटीका, जिनेश्वरसूरिका प्रमाणलक्षण, अनन्तवीर्यकी प्रमेयरत्नमाला, हेमचन्द्रसूरिकी प्रमाणमीमांसा, वादिदेवसूरिका प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार और स्याद्वादरत्नाकर, चन्द्रप्रभसूरिका प्रमेयरत्नकोष, मुनिचन्द्र सूरिका अनेकान्तजयपताकाका टिप्पण आदि ग्रन्थ इसी युगकी कृतियाँ हैं।
तेरहवीं शताब्दी में मलयगिरि आचार्य एक समर्थ टीकाकार हुए। इसी युगमें मल्लिषेणकी स्याद्वादमंजरी, रत्नप्रभसूरिकी रत्नाकरावतारिका, चन्द्रसेनकी उत्पादादिसिद्धि, रामचन्द्र गुणचन्द्रका द्रव्यालंकार आदि ग्रन्थ लिखे गये।
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