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________________ जैनदर्शन प्रचलित सभी वादोंका नयदृष्टिसे जैनदर्शनमें समन्वय किया और सभी वादियोंमें परस्पर विचारसहिष्णुता और समता लानेका प्रयत्न किया। इसी युगमें न्यायभाष्य, योगभाष्य और शावरभाष्य आदि भाष्य रचे गये हैं। यह युग भारतीय तर्कशास्त्रके विकासका प्रारम्भ युग था। इसमें सभी दर्शन अपनी-अपनी तैयारियाँ कर रहे थे। अपने तर्क-शस्त्र पैना रहे थे। दर्शन-क्षेत्रमें सबसे पहला आक्रमण बौद्धोंकी ओरसे हुआ, जिसके सेनापति थे नागार्जुन और दिग्नाग। तभी वैदिक दार्शनिक परम्परामें न्यायवातिककार उद्योतकर, मीमांसाश्लोकवातिककार कुमारिलभट्ट आदिने वैदिकदर्शनके संरक्षणमें पर्याप्त प्रयत्न किये । आ० मल्लवादिने द्वादशारनयचक्र ग्रन्थमें विविध भंगों द्वारा जैनेतर दृष्टियोंके समन्वयका सफल प्रयत्न किया। यह ग्रन्थ आज मूलरूपमें उपलब्ध नहीं है। इसकी सिंहगणिक्षमाश्रमणकृत वृत्ति उपलब्ध है । इसी युगमें सुमति, श्रीदत्त, पात्रस्वामी आदि आचार्योंने जैनन्यायके विविध अंगोंपर स्वतन्त्र और व्याख्या ग्रन्थोंका निर्माण प्रारम्भ किया। . वि० की ७ वीं और ८ वीं शताब्दी दर्शनशास्त्रके इतिहासमें विप्लवका युग था। इस समय नालन्दा विश्वविद्यालयके आचार्य धर्मपालके शिष्य धर्मकीर्तिका सपरिवार उदय हुआ। शास्त्रार्थोकी धूम मची हुई थी। धर्मकीतिने सदलबल प्रबल तर्कबलसे वैदिक दर्शनोंपर प्रचंड प्रहार किये। जैनदर्शन भी इनके आक्षेपोंसे नहीं बचा था । यद्यपि अनेक मुद्दोंमें जैनदर्शन और बौद्धदर्शन समानतन्त्रीय थे, पर क्षणिकवाद, नैरात्म्यवाद, शन्यवाद, विज्ञानवाद आदि बौद्ध वादोंका दृष्टिकोण ऐकान्तिक होनेके कारण दोनोंमें स्पष्ट विरोध था और इसीलिये इनका प्रबल खंडन जैनन्यायके ग्रन्थोंमें पाया जाता है। धर्मकीर्तिके आक्षेपोंके उद्धारार्थ इसी समय प्रभाकर, व्योमशिव, मंडनमिश्र, शंकराचार्य, भट्ट जयन्त, वाचस्पतिमिश्र, शालिकनाथ आदि वैदिक दार्शनिकोंका प्रादुर्भाव हुआ। इन्होंने वैदिकदर्शनके संरक्षणके लिये भरसक प्रयत्न किये। इसी संघर्षयुगमें जैनन्यायके प्रस्थापक दो महान् आचार्य हुए। वे हैं अकलंक और हरिभद्र । इनके बौद्धोंसे जमकर शास्त्रार्थ हुए। इनके ग्रन्थोंका बहुभाग बौद्धदर्शनके खंडनसे भरा हुआ है। धर्मकीतिके प्रमाणवार्तिक और प्रमाणविनिश्चय आदिका खंडन अकलंकके सिद्धिविनिश्चय, न्यायविनिश्चय, प्रमाणसंग्रह और अष्टशती आदि प्रकरणोंमें पाया जाता है । हरिभद्र के शास्त्रवार्तासमुच्चय, अनेकान्तजयपताका और अनेकान्तवादप्रवेश आदिमें बौद्धदर्शनकी प्रखर आलोचना है। एक बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि जहाँ वैदिकदर्शनके ग्रन्थोंमें इतर मतोंका मात्र खंडन ही खंडन है वहाँ जैनदर्शनग्रन्थोंमें इतर मतोंका नय और स्याद्वाद-पद्धतिसे विशिष्ट समन्वय भी किया गया है। इस Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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