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सामान्यावलोकन
प्रमाणके दो भेद करके फिर प्रत्यक्षके स्पष्ट रूपसे मुख्यप्रत्यक्ष और सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष ये दो भेद किये हैं । परोक्षप्रमाणके भेदोंमें स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगमको अविशद ज्ञान होनेके कारण स्थान दिया। इस तरह प्रमाणशास्त्रकी व्यवस्थित रूपरेखा यहाँसे प्रारम्भ होती है ।
अनुयोगद्वार, स्थानांग और भगवतीसूत्र में प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम इन चार प्रमाणोंका निर्देश मिलता है । यह परम्परा न्यायसूत्रकी है । तत्त्वार्थभाष्य में इस परम्पराको 'नयवादान्तरेण' रूपसे निर्देश करके भी इसको स्वपरम्परामें स्थान नहीं दिया है और न उत्तरकालीन किसी जैन ग्रंथमें इनका कुछ विवरण या निर्देश ही है । समस्त उत्तरकालीन जैनदार्शनिकोंने अकलंकद्वारा प्रतिष्ठापित प्रमाणपद्धतिको ही पल्लवित और पुष्पित करके जैन न्यायोद्यानको सुवासित किया है।
उपायतत्त्व :
उपाय तत्त्वों में महत्त्वपूर्ण स्थान नय और स्याद्वादका है । नय सापेक्ष दृष्टिका नामान्तर है । स्याद्वाद भाषाका वह निर्दोष प्रकार है, जिसके द्वारा अनेकान्तवस्तुके परिपूर्ण और यथार्थ रूपके अधिक-से-अधिक समीप पहुँचा जा सकता है । आ० कुन्दकुन्दके पंचास्तिकायमें सप्तभंगीका हमें स्पष्ट रूपसे उल्लेख मिलता है । भगवतीसूत्रमें जिन अनेक भंगजालोंका वर्णन है, उनमेंसे प्रकृत सात भंग भी छाँटे जा सकते हैं । स्वामी समन्तभद्रकी आप्तमीमांसा में इसी सप्तभंगीका अनेक दृष्टियोंसे विवेचन है । उसमें सत्-असत्, एक-अनेक, नित्य-अनित्य, द्वैत-अद्वैत, दैव पुरुषार्थ, पुण्य-पाप आदि अनेक प्रमेयोंपर इस सप्तभंगीको लगाया गया है । सिद्धसेन के सन्मतितर्क में अनेकान्त और नयका विशद वर्णन है । आ० समन्तभद्रने २ "विधेयं वार्य" आदि रूपसे सात प्रकारके पदार्थ ही निरूपित किये हैं । दैव और पुरुषार्थका जो विवाद उस समय दृढमूल था उसके विषयमें स्वामी समन्तभद्रने स्पष्ट लिखा है कि न तो कोई कार्य केवल दैवसे होता है और न केवल पुरुषार्थसे । जहाँ बुद्धिपूर्वक प्रयत्न अभावमें फलप्राप्ति हो वहाँ देवकी प्रधानता माननी चाहिये और पुरुषार्थको गौण, तथा जहाँ बुद्धिपूर्वक प्रयत्नसे कार्यसिद्धि हो वहाँ पुरुषार्थको प्रधान और दैवको गौण मानना चाहिए ।
इस तरह आ० समन्तभद्र और सिद्धसेनने नय, सप्तभंगी, अनेकान्त आदि जैनदर्शनके आधारभूत पदार्थोंका सांगोपांग विवेचन किया है । इन्होंने उस समयके
. देखो, जैनतर्कवार्तिक प्रस्तावना पृ० ४४-४८ ।
• बृहत्स्त्रय० इलो० ११८ ।
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३. आप्तमी० श्लो० ९१ ।
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