________________ स्याद्वाद 429 अनावृत, एक देशसे नष्ट तथा दूसरे देशसे अनष्ट रह सकता है, उसी तरह प्रत्येक वस्तु उभयात्मक होती है। इसमें विरोधको कोई अवकाश नहीं है। यदि एक ही दृष्टिसे विरोधी दो धर्म माने जाते, तो विरोध होता। ___जब दोनों धर्मोकी अपने दृष्टिकोणोंसे सर्वथा निश्चित प्रतीति होती है, तब संशय कैसे कहा जा सकता है ? संशयका आकार तो होता है-'वस्तु है या नहीं ?' परन्तु स्याद्वादमें तो दृढ़ निश्चय होता है 'वस्तु स्वरूपसे है ही, पररूपसे नहीं ही है।' समग्र वस्तु उभयात्मक है ही। चलित प्रतीतिको संशय कहते हैं, उसकी दृढ़ निश्चयमें सम्भावना नहीं की जा सकती। संकर दूषण तो तब होता, जब जिस दृष्टिकोणसे स्थिति मानी जाती है उसी दृष्टिकोणसे उत्पाद और व्यय भी माने जाते। दोनोंकी अपेक्षाएँ जुदी-जुदी हैं / वस्तुमें दो धर्मोंकी तो बात ही क्या है, अनन्त धर्मोका संकर हो रहा है; क्योंकि किसी भी धर्मका जुदा-जुदा प्रदेश नहीं है। एक ही अखंड वस्तु सभी धर्मोंका अविभक्त आमेडित आधार है / सबको एक ही दृष्टिसे युगपत् प्राप्ति होती, तो संकर दूषण होता, पर यहाँ अपेक्षाभेद, दृष्टिभेद और विवक्षाभेद सुनिश्चित है। ___ व्यतिकर परस्पर विषयगमनसे होता है। यानी जिस तरह वस्तु द्रव्यकी दृष्टिसे नित्य है तो उसका पर्यायकी दृष्टिसे भी नित्य मान लेना या पर्यायकी दृष्टिसे अनित्य है तो द्रव्यको दृष्टिसे भी अनित्य मानना / परन्तु जब अपेक्षाएँ निश्चित हैं, धर्मों में भेद है, तब इस प्रकारके परस्पर विषयगमनका प्रश्न ही नहीं है। अखंड धर्मीकी दृष्टिसे तो संकर और व्यतिकर दूषण नहीं, भूषण ही हैं / इसीलिये वैयधिकरण्यकी बात भी नहीं है; क्योंकि सभी धर्म एक ही आधारमें प्रतीत होते हैं / वे एक आधारमें होनेसे ही एक नहीं हो सकते; क्योंकि एक ही आकाशप्रदेशरूप आधारमें जीव, पुद्गल आदि छहों द्रव्योंकी सत्ता पाई जाती है, पर सब एक नहीं है। धर्ममें अन्य धर्म नहीं माने जाते, अतः अनवस्थाका प्रसंग भी व्यर्थ है। वस्तु त्रयात्मक है न कि उत्पादत्रयात्मक या व्ययत्रयात्मक या स्थितित्रयात्मक / यदि धर्मोंमें धम लगते तो अनवस्था होती। इस तरह धर्मोको एकरूप माननेसे एकान्तत्वका प्रसंग नहीं उठना चाहिये; क्योंकि वस्तु अनेकान्तरूप है, और सम्यगेकान्तका अनेकान्तसे कोई विरोध नहीं है। जिस समय उत्पादको उत्पादरूपसे अस्ति और व्ययरूपसे नास्ति कहेंगे उस समय उत्पाद धर्म न रहकर धर्मी बन जायगा। धर्म-धर्मभाव सापेक्ष है। जो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org